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आकर लोग कार्य तो प्रारंभ कर देते हैं पर उत्साह मंद होने पर या हो। ऐसी फीस लेकर मैं कभी नहीं आ सकता।"
स्वीकृति न हुई तो श्रावक-श्राविकाएं निराश होकर घर लौट कुछ विघ्न विरोध होने पर कार्य छोड़ देते हैं। कुछ लोगों का काम सेठ जी बड़े चक्कर में पड़े। उनका चेहरा उदास हो गया। गये। उन्हें बहुत दुःख हुआ, इस बात का कि हमारे परम पूज्य केवल विरोध करना होता है, वे विरोध के लिए विरोध करते हैं। उत्साह मंद हो गया। रुलाई लिए स्वर में बोले-"अगर भूल हई साधु-साध्वी हमारे कारण आहार नहीं ले रहे हैं। इन्हें इतना कष्ट समाज उससे बिखरता है। आप लोग सब को समाहित करते हुए, हो तो क्षमा करें। मेरे कहने का आशय यह नहीं था। परंतु मैं भोगना पड़ रहा है। विघ्नों और विरोधों को पार करते हुए आगे बढ़े, बढ़ते रहें। आपसे यह स्पष्ट निवेदन कर देता हूं कि यदि आप नहीं पधारेंगे तो इस समाचार से देसुरी गावं में हलचल मच गयी चारों ओर हमारा सहयोग, आशीर्वाद आपके साथ है।" संघ भी नहीं निकलेगा।"
साधु-साध्वियों के सत्याग्रह की चर्चा होने लगी। लोग सेठ जी को एक छोटे बच्चे की तरह रूठते देखकर उन्हें उन मुकदमेबाजों को फटकारने लगे। अनेक भावनाशील युवक, पर दया आ गई। और अन्त में उन्होंने विवश होकर सेठ जी की महिलाएं, बच्चे, वृद्ध, वृद्धाएँ श्रावक-श्राविकाएँ अनशन पर
विनती स्वीकार कर ली। दस हजार की फीस
उतर गई। झगड़ा मिटाने का एक जबर्दस्त अनोखा अभियान प्रारंभ हुआ।पूरा गांव एकत्र होकर हाय तोबा मचाने लगा। अपने
गुरुओं का उपवास देखकर गांव और संघ के लोग बेचैन हो गए। सत्याग्रह
घर-घर में गली-गली में सभाएँ होने लगी। झगडालुओं के घर जिस समय आचार्य विजय वल्लभ राजस्थान, गोड़वाड़ क्षेत्र
जाकर लोगों ने उन्हें समझाया। के सादड़ी गांव में बिराजमान थे उस समय शिवगंज के सेठ गोमराज फतहचंद आए और वंदन कर सम्मुख बैठ गये। सेठ शिवगंज से निकला छरीपालित यात्रा संघ राणकपुर की
अन्त में शाम चार बजे समझौता हो गया। दोनों पक्षों के गोमराज जी मोड़वाड़ के एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। इनका कपूर का यात्रा कर देसुरी गांव में पहुंचा। देसुरी में किसी धार्मिक कार्य को
लोगों ने आचार्य विजय वल्लभ एवं अन्य साधु-साध्वियों से अपनी व्यवसाय था और बम्बई, कलकत्ता, रंगून और बर्मा में पेदियां लेकर थावकों के बीच उग्र कलह चल रहा था। मामला कोर्ट तक धृष्टता, अविनय के लिए आंखों में आंसू भरे क्षमा मांगी और चलती थीं। पहुंच चुका था।
भविष्य में कभी कलह न करने की प्रतिज्ञा ली। जब पूर्ण फसैला हो
गया तब सब ने अन्न-जल ग्रहण किया। हाथ जोड़कर बाले-"गुरुदेव आपश्री जी की पावन निश्रा में आचार्य विजय वल्लभ शांतिप्रिय आचार्य थे। श्रावकों के केसरियाजी का पैदल संघ निकालना चाहता हूं कृपया आप अनुज्ञा बीच हो रहे अनेक टकरावों को उन्होंने बड़ी कुशलता से
सुलझाया था। उनका मानना था कि धर्म समस्या या झगड़े को आचार्य विजय वल्लभः "तीर्थ यात्रा करना बहुत उच्च कार्य मिटाता है। धर्म को समस्या में उलझा देना मनुष्य की सब से बड़ी है। उसमें भी पैदल संघ निकालना तो अत्यन्त भाग्योदय से होता घृष्टता है। जो व्यक्ति धर्म को लेकर लड़ता है वह धार्मिक नहीं हो है। तीर्थ यात्रा से मन अधिक पवित्र होता है। अशुभ विचार एवं सकता। धर्म आचरण की वस्तु है। विवाद की नहीं।
राजस्थान के एक गांव में आचार्य विजय वल्लभ पधारे। वह कार्य रुकते हैं, कर्म निर्जरा भी होती है। इससे आत्म कल्याण एवं उन्होंने देसुरी संघ में हो रहे कलह को भी सुलझाने का प्रयत्न गांव तेरापंथ सम्प्रदाय के विचारों का समर्थक था। तेरापंथियों में आत्मसुधार का मार्ग सरल होता है। फिर भी मैं इस गोड़वाड़ क्षेत्र किया। अनेक युक्तियुक्त दलीलें देकर श्रावकों का भ्रमजाल स्वभावतः कट्टरता का जहर फैला रहता है। इसलिए उन्हें गोचरी से बाहर जाने की स्थिति में नहीं हूं। क्योंकि मैंने इस क्षेत्र में विद्या मिटाने का अथक प्रयत्न किया पर ओवर कोट की तरह वे गीलेन पानी भी कठिनता से उपलब्ध हुए। प्रचार करने का कार्य हाथ में लिया है। जब तक यहां विद्या प्रचार हए। कुछ जड़मति श्रावक ऐसे थे जिन्होंने उस विवाद को निजी आचार्य विजय वल्लभ जहां भी जाते चाहे शहर में चाहे गांव कार्य व्यवस्थित रूप से प्रारंभ नहीं हो जाता तब तक गोड़वाड़ को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। जब सभी ओर से सुलह-मेल के में। वह गांव-शहर किसी भी धर्म को मानने वाला हो वे लोगों को छोड़ने की मेरी इच्छा नहीं है।"
द्वार बंद हो गये तो आचार्य विजय वल्लभ ने अपने साधु और एकत्र कर प्रवचन अवश्य देते थे। उनके प्रवचन में ऐसा सम्मोहन सेठ जी ने अत्यन्त आग्रह के साथ प्रार्थना की: "आप कृपा कर साध्वियों को निर्देश दे दिया कि गांव से न पानी लाया जाए न था कि प्रवचन सुनने के बाद लोग उनके अनन्य प्रशंसक एवं भक्त अवश्य पधारें। मैं इस कार्य में यथाशक्ति दान दूंगा। दस हजार मैं गोचरी। जब तक गांव का झगड़ा नहीं मिटता गोचरी-पानी बंद बन जाते थे। वे व्यक्ति को क्षुद्र अवस्था एवं क्षुद्र विचारों के अभी देने को तैयार है। इसी प्रकार दूसरों से भी अच्छी रकम कर दो। इस संघ में सत्ताईस साधु और छियासठ साध्वियां थीं। धरातल से ऊपर उठाकर मनुष्यता की विराट और समतल भूमि दिलाऊंगा।"
नवकारसी का समय हुआ। गांव के श्रावक श्राविकाओं ने पर ले आते थे। सांप्रदायिक विभेद से परे। उनके प्रवचन में मानव आचार्य विजय वल्लभः "इसका अर्थ क्या यह नहीं होता कि आकार गोचरी-पानी की विनती की। साधु-साध्वियों ने आचार्य धर्म का शाश्वत संदेश का घोष होता था परिणामतः वह सब के तम दस हजार रुपये इस फंड में मुझे ले जाने की फीस देना चाहते श्री जी की आज्ञा सुना दी। अत्यन्त आग्रह करने पर भी विनती हृदयों को छू जाता था।
मन के जीते जीत