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________________ सम्पादक इकीन सम्पादकीय ● प्रकृति की सर्वोत्तम कृति मानव है। भिन्न-भिन्न चित्तवल्लियों के कारण उसके स्वभाव में विभिन्नता पाई जाती है। कुछ व्यक्ति किसी मार्ग का अन्धानुसरण कर चल तो देते हैं पर मार्ग की दुर्गमता के कारण साहस छोड़ बैठते हैं, तो कछ साहसी तव्य तक पहुंचने का प्रयास करते हैं और संफान भी होते हैं। कित कतिपय ऐसे दुर्लभ महामना होते हैं जो जिधर चलते हैं स्वयं एक तथा मार्ग बन जाता है। ऐसे पचिक मानव होते हुए भी नवयुगदृष्टा और भ्रष्टा कहकर पूजे जाते हैं। उस शान्तिशोधक के चरणयगल अनुयायियों के लिए प्रकाश-सम्म बन जाते हैं, उनके मखारविन्द से उच्चरित शब्द आस्तवाक्य कहलाते है, उनकी दिनचर्या और प्रवृत्ति आदर्श का रूप धारण कर लेती है, उनके विचार, आशीर्वाद और ॐ वरदान का फल देते हैं। युगवीर बल्लभ एक ऐसे ही महतीय मानव थे। प्रकृतिप्रदत्त विशेषताओं के अतिरिक्त लागणारहित मानव-कल्याणकारी सिद्धान्त पूज्य गुरुदेव का जीवन-दर्शन था। यद्यपि आपश्री के विराट व्यक्तित्व का वर्णन करने में शब्द असमर्थ है तथापि निर्मल आन्तरिक चेतना के वशीभूत होकर साध-साध्वी-वृन्द, गुरूप्रेमी भक्त समुदाय अपने परोपकारी आदर्श पुरुष के प्रति न केवल श्रद्धान्वित हृदयोद्गार व्यक्त करता रहा है अपित उनकी विचारधारा को साकार रूप देकर उसे पल्लवित प्रणित और फलित भी करता रहा है। दिल्ली स्थित विजय वल्लभ स्मारके एक ऐसा अनुपम तीर्थ स्थल है, जो पूज्य गुरुदेव के विचार और सिद्धान्तों का यथार्थ प्रतिविम्ब है तथा भविष्य में यह स्थल आगे आने वाली पीढ़ी के लिए सन्मार्ग और संस्कृति का प्रवक्ता भी प्रमाणित होगा राष्ट्रीय मार्ग से लगा होने के कारण यह जन-मानस का आकर्षण केन्द्र तो है ही, इससे भी बढ़कर यदि इस अविस्मरणीय स्थल को बीसवीं सदी की जैन शिल्पकला और भाव की दृष्टि से सर्वोत्तम कृति कहा जाये तो कोई अत्यक्ति नहीं होगी) वल्लभ स्मारक के निर्माण में सर्वाधिक योगदान जन-भारती महत्तरा साध्वी श्री मृगावती का रहा है, जिन्होंने स्मारक निर्माण हेतु स्वयं को समर्पित कर दिया था, उन्हें इस वल्लभ- स्मारक का "नीव का पत्थर" कहना अधिक उपयुक्त होगा। क्ति उनके इस श्लाध्य कर्तव्य के पीछे प. प. गुरुदेव जिन शासनरत्न शान्ततपोमूर्ति आचार्य श्रीमद्विजय समुद्र सुरीश्वर जी महाराज का प्रेरणात्मक आदेश रहा है और जैन-दिवाकर वर्तमान गच्छाधिपति प.पू. आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन सरि जी महाराज के आशीर्वाद तथा शुभचिन्तन का महत्व कम नहीं है, जो निर्माण कार्य की प्रगति और पणता के लिए सतत सचेष्ट रहे। ऊपर लिखित श्रद्धास्पद व्यक्तियों के अतिरिक्त महत्तरा श्री की शिष्याएँ साध्वी सवता श्री आदि का स्मारक को साध्वि प्रदान करना भी सराहनीय है एवम् शिलान्यास से प्रतिष्ठापर्यन्त अहोरात्र तन, मन और धन से समर्पित श्री राजकुमार जैन का यशस्वी योगदान आदर्श और अनुकरणीय है। स्मारक, जिसका 29.11.1974 को समारोह के साथ शिलान्यास किया गया और जो अब बनकर तैयार है, उसके मुख्य • मांदर की प्रतिष्ठा हेतु दिनांक 1.2.89 में 11.2.89 तक एकादशी का महात्सववज्य आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन सूरीश्वर जी महाराज की शुभ दिश्रा में सम्पन्न होगा। प्रतिष्ठा के इसी पावन पर विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं सहजपयोगी कार्यक्रमों के साथ स्मारिका का प्रकाशन कर पूज्य गुरुदेवों के गुणगान के साथ जैन धर्म, संस्कृति तथा वल्लभ के प्रति एक साभार समर्पण व्यक्त किया गया है।
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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