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________________ गलत कदम है। इतने नीचे स्तर पर हमें नहीं आना चाहिए। नाते, हम और कविजी, भले ही परस्पर विरोधी कैम्पों में हैं। चिन्तित रहते थे। महाप्रयाण से पूर्व वे सारी शक्ति से मध्यम वर्ग वैचारिक संघर्ष है तो क्या हम अपनी शालीनताभी खो बैठे?"संघ किन्तु जहाँ सम्प्रदाय से ऊपर जैन समाज का प्रश्न है, हम सब की समस्याओं को ही हल करने में लगे थे। बिना किसी के प्रमुख सदस्य मेरे पक्ष में थे, और वह चर्चा वहीं समाप्त हो गई। एक हैं। आप इस छोटे मुनि की बातों का ख्याल न करें।" साम्प्रदायिक भेदभाव के, सर्वसाधारण जनता की हितदृष्टि से, आचार्यश्री को किसी सूत्र से उक्त घटनाओं का पता लगा तो ऊपर कीबातें घटना की दष्टि से साधारण लगती हैं। किन्त उनके वे उद्योग गृहों की स्थापना के रूप में किए गए महनीय उन्होंने कहा कि "कविश्रीजी का विचार ठीक है। हमारे कितने ही उनमें जो भावना अन्तर्निहित है, वह बताती है कि द्वन्द्व की स्थिति प्रयत्न, युग-युग के लिए प्रेरणा स्रोत रहेंगे। इसी सन्दर्भ में मतभेद हों, संघर्ष हों, किन्तु वे सब शान्त वातावरण में वैचारिक में भी आचार्यश्री कितने गम्भीर एवं उदात्त थे। कछ लोग उनके एकबार उन्होंने तड़पते दिल से कहा था-"साधर्मिक वात्सल्य स्तर पर ही होने चाहिएं। मतभेद के कारण मनोभेद क्यों हो? साम्प्रदायिक पक्षग्रह की आलोचना करते हैं। परन्तु मैं देखता है, का अर्थ धर्मबन्धुओं को मिष्ठान्न खिलाना भर ही नहीं है, आखिर हम सब हैं तो एक ही पिता के पुत्र!" हममें से प्रायः सभी साथी किसी न किसी साम्प्रदाय विशेष से बल्कि साधर्मिक बन्धुओं को कार्य में जोड़ कर उन्हें आत्मनिर्भर जब एक भाई से मैंने यह सुना तो आचार्यश्री के प्रति मेरी सम्बन्धित हैं और यथा-प्रसंग अपने-अपने सम्प्रदाय के बनाना, यह भी सच्चा धार्मिक वात्सल्य है। ....एक ओर धनिक भावना ने एक और मोड़ ले लिया। उक्त शब्द छिछले व्यक्तित्व पक्ष-पोषण में, जैसा भी बन आता है, समयानुसार कुछ न कुछ वर्ग मौज उड़ाए, और दूसरी ओर हमारे सहधर्मी भाई भूखों मरें, के नहीं हो सकते। यह वही महान् व्यक्तित्व कह सकता है, जो सक्रियता रखते ही हैं। आज कौन है, जो यह कह सके कि मैं ऐसा यह सामाजिक न्याय नहीं, अन्याय है।" आवश्यकता है आज, हिमाचल सा ऊँचा हो, सागर-सा गहरा हो! कुछ नहीं करता। प्रश्न सम्प्रदाय के पक्ष-पोषणका नहीं, प्रश्न है, आचार्यश्री के इस विचार-स्वप्न को साकार रूपदेने की। एक घटना और संघर्षकाल में भी शान्ति एवं शालीनता बनाए रखने का। जैसा शिक्षा-क्षेत्र के विकास में योगदान : विस्तार तो हो रहा है, पर रायकोट के चातुर्मास की एक कि और जबकि मैंने देखा, आचार्यश्री वस्तुतः शान्ति एवं युगदी आचार्यश्री का शिक्षा-क्षेत्र के विकास में भी और घटना का उल्लेख कर दूं। आचार्यश्री के साध संघ में एक शालीनता की प्रतिमूर्ति थे। महत्वपूर्ण योगदान है। जैन समाज व्यापारी समाज है। अर्थदृष्टि छोटे मुनि थे, नाम अभी स्मृति में नहीं है, उसने एक स्थानकवासी बंबई जैसे सुन्दर स्थान में पहुंचने पर भी आचार्यश्री का तो उसके पास थी उस युग में, किन्तु जैसी कि चाहिए, विद्यादृष्टि श्रावक को कछ प्रश्न लिखकर दिए, और कहा कि "अपने सम्पर्क सूत्र बना रहा। जब भी कोई परिचित व्यक्ति वहाँ से यहाँ नहीं थी। यही कारण था कि परम्पराओं के नाम पर काफी साधओं से जरा इनके उत्तर तो लाओ, देखें,तम्हारे साधु कितने आने को होता, तो सुख-शान्ति का संदेशभिजवात, कार्यक्रमा की अन्धविश्वास समाज में फैले हए थे। एक तरह से समाज का गहरे पानी में हैं।" इस पर स्थानकवासी संघ की ओर से एक सूचना देते, और इधर से मेरे अपने कायकलाप का जानकारा भा अंग-अंग रुढ़िवाद से जकड़ा हआ था। आचार्यश्री का कहना थाप्रतिनिधि मण्डल आचार्यश्री के पास भेजा गया, इसलिए कि लेते। यह था वह महान् वात्सल्यतापूर्ण मुक्त-हृदय, जो अपने -शिक्षा के सिवा और कोई मार्ग नहीं है कि व्यर्थ के पूर्वाग्रहों से हमारे मुनिश्री विचार-चर्चा एवं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हैं, इसके परिचितों के प्रति सहज स्नेह की अजस्र धारा बहाता रहा. मुक्त होकर समाज प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सके। इसी हेत लिए समय और अन्य नियम तय हो जाने चाहिएँ। ज्योंही साम्प्रदायिक सीमा से परे भी। आचार्यश्री ने महावीर जैन विद्यालय बंबई, आत्मानन्द जैन आचार्यश्री को मूल स्थिति का पता लगा, तो उक्त मुनि को बुला कालेज विद्यालय बंबई, आत्मानन्द जैन कालेज अम्बाला आदि कर सबके सामने डाँटा कि "यह तुम ऊपर-ऊपर क्या गड़बड़ करुणा के जीवित प्रतीक : अनेक शिक्षण संस्थाओं का निर्माण किया, जो आज भी समाज में करते हो? तम्हें किसने कहा था कि मझे बिना पूछे ही इस प्रश्न आचार्यश्री बहत कोमल, संवेदनाशील एवं सहृदय व्यक्ति उच्चस्तरीय शिक्षा का प्रसार कर रही हैं। उक्त सन्दर्भ में प्रश्नोत्तर की चर्चा शुरू कर दो। ये लोग आए हैं, अब जाओ न थे, उनके अन्तर का कण-कण उज्ज्वल मानवीय गुणों से आचार्यश्री का एक वचन है, जो सदा स्मृति में रखने जैसा है - शास्त्रचर्चा के लिए। कितने नासमझ हो तुम। व्यर्थ के द्वन्द्व करते ज्योतिर्मय था। वे करुणा के तो जीवित प्रतीक थे। जब भी कोई "सेवा, संगठन, स्वावलम्बन, शिक्षा और जैन साहित्य का फिरते हो! खबरदार फिर कभी ऐसी हरकत की तो!" अनन्तर दीन-दुःखी उनके चरणों में पहुँचता, रोता हुआ जाता ते वह हँसता निर्माण एवं प्रसारण ये पाँच बातें जैन समाज की प्रगति की शिष्टमंडल से कहा-"भाई यह मुनि की गलती है। सम्प्रदाय के हुआ ही लौटता। वे मध्यम वर्ग की बिगड़ती स्थिति से काफी आधारशिला है।" स्नेह-भावना समन्वय दृष्टि में समभाव बसता है। समभाव में सबके प्रति स्नेह और प्रेम झलकता है। स्नेह भावना पत्थर को भी मोम बना देती है। - विजय वल्लभ सरि FORPrivatespenionline only www.jainelibrary.ora
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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