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________________ 10 आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि सर्वतोमुखी व्यक्तित्व के धनी विक्रमाब्द 1976 की पुरानी बात है। मैं अपने जीवन में पहली बार, तत्कालीन पंजाब प्रदेश के अम्बाला छावनी में आया हुआ था। श्री अजित प्रसाद जैन की अध्यक्षता में महावीर जयन्ती का विराट आयोजन था, आत्मानन्द जैन कालेज के प्रांगण में। आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरिजी भी उन दिनों वहीं थे। एक तरह से उन्हीं के तत्त्वावधान में समग्र जैन समाज की ओर से आयोजित महावीर जयन्ती का उत्सव मूर्त रूप लेने जा रहा था। मुझे भी निमंत्रण था। और इसीलिए अम्बाला छावनी में उसी दिन अम्बाला शहर से पहुंचा था। आशंकाओं के घिरते बादल : महावीर जयन्ती के समारोह की तैयारियाँ अवश्य हो रही थीं, परन्तु अन्दर में जनमानस काफी उलझा हुआ था। जैसा कि प्रायः साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों की मनोभूमिका में हो जाया करता है। बात यह थी कि स्थानकवासी समाज आचार्यश्री विजय वल्लभ सूरिजी की कुछ पुरानी बातों की स्मृति से सशंक था कि साम्प्रदायिक प्रश्नों को लेकर कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए, ताकि स्थानकवासी सम्प्रदाय को नीचा देखना पड़े। मैंने कहा, "अतीत अतीत है। उसे हमेशा वर्तमान के हर परिप्रेक्ष्य में देखते रहना, कुछ अर्थ नहीं रखता। और यदि कुछ ऐसा होता भी है, तो उसका यथावसर योग्य समाधान होगा। हम भी ऐसे कहाँ विचारदरिद्र हैं कि समय पर कुछ कर नहीं सकेंगे। " बात यह थी कि आचार्यश्री अपनी तरुणाई में वाद-विवाद रूप अखाड़े के मानववादी रहे थे। जब देखो तब, शास्त्रार्थों के रणक्षेत्र में जूझते रहे थे। अतः उस पुरानी स्मृति के प्रकाश में द्वन्द्व की आशंका का होना सहज है। परन्तु जीवन में यह एक युग होता है। उस समय प्रायः ऐसा हुआ ही करता है। मैं अपनी ही कहूँ। अपनी तरुणाई से मैं भी कम लड़ाकू नहीं था। उन दिनों मेरे अन्तर में भी उद्दाम संघर्ष की धारा तट तोड़गति से प्रवाहित थी। यदि आचार्यश्री उस तूफानी युग में ऐसे थे, इसमें क्या आचार्य की बात Jain Education teenationa • उपाध्याय अमरमुनि धारणाएँ गलत निकलीं : महावीर जयन्ती का कार्यक्रम कुछ सहमे से वातावरण में शुरू हुआ। पहले आचार्यश्री बोले- बहुत सुन्दर, साथ ही श्रेयस्कर भी। विभिन्न जैन-परम्पराओं में समन्वय कैसे स्थापित हो, यह था वह समाज चिन्ता का स्वर, जो उनके प्रवचन में आदि से अन्त तक मुखरित होता रहा। मैं इसी बीच समझ गया कि आचार्यश्री को समझने में या तो लोग भूल कर रहे हैं, या आचार्यश्रीजी स्वयं ही अपने को काफी दूर तक बदल चुके है। पहले का वह साम्प्रदायिक मनोभाव के धरातल पर उभरने वाला जोश, जब यथार्थता को स्पर्श करने वाले गम्भीर चिन्तन में बदल कर निर्माणकारी रूप ले चुका है। आचार्यश्री के बाद मैंने अपने प्रवचन में अनेकान्त की व्याख्या द्वारा आचार्यश्री के प्रवचन को ही पल्लवित किया और कहा कि जब जैन दर्शन का अनेकान्त विश्व की विभिन्न परम्पराओं के समन्वय का महापथ प्रशस्त कर सकता है, तो वह जैन धर्म की विभिन्न शाखाओं में, जो मूल में एक ही केन्द्र से अंकुरित हुई है, एकरूपता क्यों नहीं स्थापित कर सकता ? अवश्य कर सकता है, यदि हम सब मिल कर निष्ठा के साथ प्रयत्न करें तो ! आचार्यश्री प्रसन्नभाव से प्रवचन सुन रहे थे। बीच-बीच में उनके मखमण्डल पर स्मितरेखा चमक उठी थी, जो इस बात की प्रतीक थी कि पुरानी पीढ़ी सचमुच ही नई पीढ़ी को आशीर्वाद दे रही है। यह था वृद्ध और तरुण का वह वैचारिक सम्मिलन, जो आज के युग में प्रायः कम ही हो पाता है। उत्सव की समाप्ति पर कुशल क्षेम पूछा गया। संक्षिप्त-सा वार्तालाप भी हुआ, किन्तु वह इतना मधुर कि आज भी उनकी मधुरिमा स्मृति के कण-कण को मधुर बनाए हुए हैं। एक घटना को लेकर, साम्प्रदायिक तनाव काफी उग्र हो गया था। आचार्यश्री अपने मोर्चे पर थे, तो हम अपने मोर्चे पर एक तरह से पंजाब का समग्र जैन समाज, परस्पर विरोधी दो पक्षों में विभक्त होकर 'युद्धाय कृतनिशयः' ही था। स्थानकवासी समाज की ओर से जैन भूषण श्री प्रेमचन्द्रजी म. और मैं मोर्चे पर सेनानी बन कर पहुंचे! प्रश्न आया कि मूर्तिपूजक परम्परा के खण्डन में एक जोरदार पुस्तक लिखी जाए। लिखने का दायित्व मुझ पर ! मैंने लिखना शुरू किया तो सम्बोधन में आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि लिखता और उनके पक्ष का दृढ़ता से खण्डन करता। लेखन के कुछ अंश, जब साथ के बड़े कहे जाने वाले मुनि ने देखे, तो जैसी कि उनकी प्रकृति है, कहा "यह क्या? पुस्तक तो ठीक लिख रहे हों खण्डन भी खूब हो रहा है, परन्तु आप उनको आचार्यश्री क्यों लिखते हैं?" मैंने कहा - "तो फिर क्या लिखना चाहिए ?" उन्होंने ज्यों ही यह कहा कि 'दण्डी' लिखिए तो मैंने उत्तर दिया कि "यह मुझ से नहीं होगा। आप उन्हें दण्डी लिखें और वे आप को ढूंढ़िया या मुँहबंदा कहें यह निम्न स्तर की लड़ाई मुझे पसन्द नहीं जब आप एक वैष्णव साधु को संतजी और महंतजी कह सकते है, सिक्ख को सरदारजी और ईसाई साधु को पादरी साहब कह सकते हैं, मुसलमान को मियाँ और मौलवी साहब कह कहते हैं, तो अपने ही जैन समाज के एक लब्ध प्रतिष्ठा आचार्य को आचार्य क्यों नहीं कह सकते ?" मेरे तर्क का उनके पास उत्तर तो कोई था नहीं, हाँ जिद अवश्य थी, और इसी कारण वह पुस्तक आगे लिखी नहीं जा सकी। उक्त प्रसंग की ही एक और घटना है। हमारे तथाकथित बड़े महाराज ने भावावेश में आकर यह प्रश्न खड़ा किया कि "मूर्तिपूजक साधुओं को अपने श्रावक गोचरी न दें। " साम्प्रदायिक तनाव की आड़ में इसे काफी तूल दिया जाने लगा। मैं मतभेद के कारण मनो भेद क्यों ? विक्रम संवत् 1996 की ही बात है- रायकोट (पंजाब) में, इसके सर्वथा विरुद्ध था। मेरा कहना था कि "यह तो बिल्कुल ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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