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________________ Jain Education International भगवान महावीर का अनेकान्तवाद वीतराग प्रभु का धर्म स्याद्वादमय है। प्रभु के धर्म में कोई आग्रह नहीं। स्याद्वाद जैसे अनुपम सिद्धांत को लघु लेख में योग्य-उचित न्याय नहीं मिल सकता। मुझे तो केवल प्रासंगिक बात करनी है। एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनीनीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ।। (श्री अमृतचन्दाचार्य) से तुम भी सच्चे हो'' '' अमुक अपेक्षा से मैं भी सच्चा हो सकता हूँ" "तुम कह रहे हो अमुक अपेक्षा से वह भी सत्य के नजदीक है अत: इसकी भी बात मानी जानी चाहिये "इनको भी अमुक अधिकार मिलना चाहिए"। यह भाषा अनेकांतवाद की है। यहां समाधान है, शान्ति है, प्रेम है, सद्भाव है, सत्य है, स्वर्ग है, कर्मनिर्जरा का मूल कारण और अपवर्ग का सोपान है। अगर यह सिद्धांत हमारे दिलों में बस जाय संघ, समाज, देश, राष्ट्र और विश्व में व्यापक बन जाय तो यह धरती नन्दनवन बन जाय । जनसाधारण की भाषा में "ही" एकान्तवाद है और "भी" अनेकान्तवाद है। "मैं ही ठीक हूँ" "मेरी बात ही ठीक है" "मैं जो कहता हूँ, वही सत्य है" "मुझे ही अधिकार मिलना चाहिए" "मेरी ही बात मानी जानी चाहिए" यह भाषा एकान्तवाद की है। यहीं पर लड़ाई है, झगड़ा है, क्लेश है, विग्रह है, तनाव है, युद्ध है, कर्मबन्धन है, तमाम मानसिक, शारीरिक बीमारियों का घर है, आत्मविकास को रोकने वाला है। परन्तु "भी" "कुछ मेरी बात भी ठीक है, कुछ अंश तक तुम्हारी भी ठीक है। 'अमुक अपेक्षा For Private & Personal Use Only ऐसा उदार - सार्वभौम सिद्धांत गुरु वल्लभ के जीवन को स्पर्शा था। वे सदा सत्यगवेषक रहे। अनेकान्तवाद उनके कार्यों में, उनके लेखों में, उनकी वाणी में सर्वत्र उपलब्ध होता है। जब-जब उनको जैसा लगा तब-तब उन्होंने "सर्वसंघहिताय" वैसा उपदेश दिया। कहीं आग्रह नहीं किया। होवे कि न होवे, मेरी भावना, मैं क्या चाहता हूँ मैं सम्प्रदायों में संगठन, साधर्मिक सेवा, शिक्षा प्रचार जैसे सर्वहित कर शुभ कार्यों में भी उनका आग्रह नहीं। जब भी मुझे विचार आता है तो यही ख्याल आता है कि वास्तव में प्रभु का धर्म जिन्हें स्पशां था, साधु सन्तों में मैंने अपने जीवन में ऐसे निराग्रही सन्त विरले ही देखे। ऐसे स्याद्वाद सिद्धांत को जीवन में स्थान देने वाले परम पावन, निराग्रही महासन्त के चरणों में मेरा सविनय सादर सबहुमान कोटि-कोटि वन्दन, नमन । गोपी मथनी द्वारा जिस नीति तरीके से मक्खन निकालती है, वही नीति स्याद्वाद-अनेकांतवाद है। नवनीत मक्खन तब - साध्वी मृगावती श्री मिलता है जब एक हाथ आगे बढ़ता है और दूसरा हाथ पीछे सरकता है। दोनों नेत्रों- रस्सियों को एक साथ खींचने से नवनीत नहीं निकलेगा। एक ढीला छोड़ा जाता है, दूसरा खींचा जाता है- -यह जैनदर्शन का नय है। इस अपेक्षानीति से सत्य उपलब्ध होता है। www.jainelibrary.org
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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