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________________ 22 या अगर कभी क्षण भर को विचारों से छुटकारा मिला तो अंधेरी रात, अमावस! घबड़ाकर तम बाहर निकल आओगे। जिस व्यक्ति की कृष्ण लेश्या गिरती है, उसे भीतर नीले आकाश का दर्शन होगा। बड़ा शान्त! जैसे कोई गहरी नदी हो और नीली मालूम पड़ती हो। फिर जो उसके भी पार जाएगा, उसके लिए महावीर कहते हैं, कापोत लेश्या । तब और भी हलका नीलापन; गहरा नहीं ऐसे क्रमशः पर्ते टूटती जाती हैं। 'तेजोलेश्या, पद्मलेश्य, शुक्ल लेश्या, इनमें पहली तीन अशुभ हैं। इनके कारण जीवन विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता 'है।' यह भी समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस सूत्र की व्याख्या बड़ी अन्यथा की जाती रही है। वह व्याख्या ठीक है, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। व्याख्या की जाती रही है कि इन तीन लेश्याओं में जो उलझा हुआ है, वह नर्क जाएगा; दुर्गति में पड़ेगा। पशु-पक्षी हो जाएगा कीड़ा -मकोड़ा हो जाएगा। यह व्याख्या गलत नहीं है, लेकिन बहुत महत्वूर्ण भी नहीं है। असली व्याख्या : जो व्यक्ति इन लेश्याओं में उलझेगा उसकी बड़ी दुर्गति होती है। वह कभी भविष्य में, किसी दूसरे जन्म में कीड़ा-मकोड़ा बनेगा, ऐसा नहीं है। वह यहीं कीड़ा-मकोड़ा बन जाता है। कीड़ा-मकोड़ा बनने के लिए कीड़े-मकोड़े की देह लेना जरूरी नहीं है। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध वस्तुतः मनुष्य होता है - जब मन का बंदर नहीं रह जाता। अभी तुम देखो, मन के बंदर को तुम मुंह बिचकाते, इस झाड़ से उस झाड़ पर छलांग लगाते, इस शाखा से उस शाखा पर डोलते हुए पाओगे। तुम बंदर को भी इतना बेचैन न पाओगे, जितना तुम मन को बेचैन पाओगे। डार्विन तो बड़ी बाहर की शोध करके इस नतीजे पर पहुंचा; अगर भीतर जरा उसने झांका होता तो इतनी शोध बाहर की करने की जरूरत न थी। आदमी बंदर से निश्चित आया है। आदमी भी बंदर है। और इस भीतर के बंदर से छुटकारा जब तक न पाया जाए, तब तक मनुष्य का जन्म नहीं होता। मनुष्य की देह एक बात है; मनुष्य का चित्त बड़ी और बात है। महावीर का सूत्र है : "कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों ही अधर्म या अशुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव बड़ी दुर्गतियों में Jain Education Inter 11. उत्पन्न होता है।' और वैज्ञानिक अद्भुत आश्चर्यजनक निष्कर्षो पर पहुंचे है 'पीत, पद्म, शुक्ल, ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके कि एक वृक्ष को काटो तो सारे वृक्ष बगीचे के कांप जाते हैं, पीड़ित कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है।' हो जाते हैं। और एक वृक्ष को पानी दो तो बाकी वृक्ष भी प्रसन्न हो' जाते हैं जैसे एक समुदाय है। 'पहले ने सोचा पेड़ की जड़मूल को काटकर, दूसरे ने कहा केवल स्कन्ध ही काटा जाए तीसरे ने कहा, इतने की क्या जरूरत? शाखा को तोड़ने से चल जाएगा। चौथे ने कहा, उपशाखा ही तोड़ना काफी है। पांचवें ने कहा, पागल हुए हो? शाखा, उपशाखा स्कन्ध, वृक्ष को करना क्या है ? फल ही तोड़ लिए जाएं।' भूख लगी है, फल की जरूरत है। भूख के लिए फल चाहिए। शाखाएं, प्रशाखाएं क्यों तोड़ी जाएं ? 'छठे ने कहा, 'बैठे; पके फल हैं, गिरेंगे। तोड़ने की जरूरत नहीं है।' छीनना भी क्या ? तो छटे ने कहा, हम बैठ जाएं। पके फल लगे हैं, हवा के झोंके आएंगे। फिर वृक्ष को भी तो दया होगी। फिर वृक्ष भी तो समझेगा कि हम भूखे हैं। फिर वृक्ष भी तो चाहता है कि कोई उसके फलों को चखे और प्रसन्न हो, आनंदित हो नहीं तो वृक्ष की भी प्रसन्नता कहाँ ? वृक्ष के पास जाओ कुल्हाड़ी लेकर, तो तुम्हें कुल्हाड़ी लेकर आता देखकर वृक्ष कांप जाता है। अगर तुम मारने के विचार से जा रहे हो, वृक्ष को काटने के विचार से जा रहे हो तो बहुत भयभीत हो जाता है। अब तो यंत्र हैं, जो तार से खबर दे देते हैं। नीचे ग्राफ बन जाता है, कि वृक्ष कांप रहा है, घबड़ा रहा है, बहुत बेचैन है, तुम कुल्हाड़ी लेकर आ रहे हो। लेकिन अगर तुम कुल्हाड़ी लेकर जा रहे हो, और काटने का इरादा नहीं है सिर्फ गुजर रहे हो वहां से तो वृक्ष बिल्कुल नहीं कंपता। वृक्ष के भीतर कोई परेशानी नहीं होती। यह तो बड़ी हैरानी की बात है। इसका मतलब यह हुआ कि तुम्हारे भीतर जो काटने का भाव है, वह वृक्ष को संवादित हो जाता है। फिर जिस आदमी ने वृक्ष काटे हैं पहले, बिना कुल्हाड़ी के भी निकलता है तो वृक्ष कांप जाता है। क्योंकि उसकी दुष्टता जाहिर है। उसकी दुश्मनी जाहिर है। लेकिन जिस आदमी ने कभी वृक्ष नहीं काटे हैं, पानी दिया है पौधों को, जब वह पास आता है तो वृक्ष प्रफुल्लता से भर जाता है। उसके भी ग्राफ बन जाते हैं कि कब वह प्रफुल्ल है, कब वह परेशान है। For Private & Personal Use Only और महावीर कहते हैं कि ये भी छहों लेश्याएं है छठवीं भी इनके पार वीतराग की अरिहन्त की अवस्था है। उस अरिहन्त की अवस्था में तो कोई पर्दा नहीं रहा। शुभ्र पर्दा भी नहीं रहा। "इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमशः छहों लेश्याएँ के उदाहरण हैं। छटवीं लेश्या को अभी लक्ष्य बनाओ। श्वेत लेश्या को लक्ष्य बनाओ। चांदनी में थोड़े आगे बढ़ो चलो, चांद की थोड़ी यात्रा करें। पूर्णिमा को भीतर उदित होने दो। हिंदू संस्कृति का सारा सार इस सूत्र में है: सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्। सब सुखी हों, रोगरहित हों, कल्याण को प्राप्त हों। कोई दुख का भागी न हो। यह श्वेत लेश्या में जीने वाले आदमी की दशा है। इसके पार तो कहा नहीं जा सकता। इसके पार तो अवर्णनीय है। अनिर्वचनीय है। अनिर्वचनीय का लोक है। इसके पार तो शब्द नहीं जाते। छठवीं तक शब्द जाते हैं, इसलिए छठवें तक महावीर ने बात कर दी यद्यपि जो छठवें तक पहुंच जाता है, उसे सातवें तक जाने में कठिनाई नहीं होती। जिसने अंधेरी रातों के पर्दे उठा दिए, वह फिर आखिरी झोंके से पारदर्शी सफेद पर्दे को उठाने में क्या अड़चन पाएगा? वह कहेगा, अब अंधेरा भी हटा दिया, अब प्रकाश भी हटा देते हैं। अब तो हम जो हैं, जैसा है, उसे वैसा ही देख लेना चाहते हैं - निपट नग्न, उसकी सहज स्वभाव की अवस्था में। महावीर की व्याख्या में ये छह पर्दे तुम हटा दो, ये छह चक्र तुम तोड़ दो और तुम्हारी ऊर्जा सातवें चक्र में प्रविष्ट हो जाए तो तुम्हारे भीतर उस कमल का जन्म होगा, जो जल में रहकर भी जल को छूता नहीं। -आचार्य रजनीश www.jamelibrary.pc
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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