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________________ 31 एकता के उपदेशक भारत भूमि आदिकाल से ऋषि भूमि के नाम से प्रसिद्ध है। यह देश कभी धनधान्य से पूर्ण था, इसे विदेशी सोने की चिड़िया कहते थे। शास्त्रों में लिखा है कि ऐसी भूमि पर जन्म लेने के लिये स्वर्ग में रहने वाले देवता भी लालायित रहते हैं। फिर भी यहां के साध्वी सुमंगला श्री निवासी ममत्व और आसक्ति के दास नहीं थे। उनकी अभिलाषा समय-समय पर संसार में दिव्य विभूतियों का अबतरण रहती थी कि ऐसा सुख प्राप्त किया जायें जो अमर और अनश्वर होता रहता है। जब संसार में हिंसा का प्राबल्य हुआ, तब भगवान हो। भारतीय जनता ऐसे ऋषियों और महात्माओं की सदैव पूजा महावीर ने अहिंसा का प्रचार कर संसार को एक नई दिशा की करती आई है। यह सन्त-परम्परा अविच्छिन्न रही है तथा इस ओर मोड़ा। जहां महात्मा गांधी ने मनुष्यों के मन में समाई हुई देश के प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में ऐसे अनेक ऋषि-मनि हए हैं दीनहीन भावना को मिटाकर अपूर्व आत्मबल की जागृति कर जिन्होंने स्वार्थ को लात मारकर परहित-साधना को अपने जीवन अन्याय के प्रति असहयोग करने की कला सिखाकर समूचे विश्व का एकमात्र लक्ष्य बनाया है। को एक नई प्ररेणा दी, धर्म के नाम पर फैली संकीर्ण भावनाएँ, उन्नीसवीं शताब्दी के जैन समाज में ऐसे ही महान रुढ़िया, प्रथाएँ एवं भ्रातं धारणाएं मिटाकर संसार को प्रगतिशील संत-रत्न का जन्म हआ जो जैन-समाज में विजय मरीश्वरजी सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। महाराज के नाम से प्रख्यात हुए। विक्रम संवत 1953 में "विवेगे धम्म महिए" अर्थात विवेक में ही धर्म है - इस गुजरांवाला में श्री विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज कालधर्मको आगम-वाक्य को जीवन-सूत्र बनाकर श्रीमद् विजयवल्लभ प्राप्त हुए। अन्तिम समय अपने मेधावी शिष्य को जगाकर सूरीश्वर जी महाराज ने अपने कदम आगे बढ़ाये। वे निरर्थक उन्होंने संदेश दिया, "पंजाब में देवमंदिरों की स्थापना का रुढ़ियों व धर्म के नाम पर आडम्बर व गलत प्रथाओं के सख्त श्रीगणेश हो चुका है। अब इन मंदिरों के सच्चे पुजारी पैदा करने विरोधी थे और उन्हें मिटाने के लिये लोकोपवाद व निन्दा स्तुति के लिए सरस्वती-मंदिरों की स्थापना की ओर ध्यान देना; साथ की परवाह किए बिना जैन धर्म का झंडा बुलंद किया। उनका ही पंजाब में नवस्थापित जैन-संघ की रक्षा और उसके जीवन कमल से कोमल और साथ ही वजवत कठोर भी था। सिंचन-परिवर्धन का उत्तरदायित्व भी तुम्हारे मजबूत कन्धों पर उनकी दृष्टि में मानवमात्र समान है। चाहे वह किसी सम्प्रदाय का हो उनके मन में एक ही तड़प थी कि वे सभी धर्मों के बीच आपसी पूज्य गुरुदेव ने इस वचन को अपना जीवन मंत्र मानकर प्रेम, सद्भाव और सहिष्णुता की सरिता बहावें। उनका दृष्टिकोण धुवलक्ष्य बना लिया। उसकी पूर्ति के लिये अपना जीवनसमर्पित मानवतावादी था। उनके शब्द थे, "न मैं जैन हं, न बौद्ध, न कर दिया। जीवन के अन्तिम श्वास तक अहिंसा, संयम व साध वैष्णव हूँ, न शैव, न हिन्दु, न मुसलमान: मैं तो परमात्मा को धर्म के नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सामाजिक उत्कर्ष के प्राप्त कराने वाले मार्ग का पथिक एक मानव है।" कितना उदार कार्यों की उपेक्षा नहीं की। निवृत्ति और प्रवृत्ति का सुन्दर समन्वय भावना थी उनमें? करते हुए, उन्होंने साधुत्व का एक नया आदर्श समाज और देश आज भी उनकी उदार भावना के कारण जन-जन का मन के सम्मुख उपस्थित किया। गुरुवल्लभ की सबसे बड़ी देन शिक्षा बल्लभ के नाम लेते ही नाच उठता है। उन्होंने देशकाल और प्रचार के क्षेत्र में थी। वे मानते थे कि शिक्षा के प्रचार के बिना परिस्थितियाँ समझकर धर्म के मल उद्देश्य की रक्षा करने के लिये समाज और देश की प्रगति की कल्पना निराधार है। सारे कार्य विवेकपूर्वक किये, जिससे भावी पीढ़ी उन्हें सरल तरीके इसी शिक्षा प्रचार को लेकर उन्होंने नारी जीवन को आगे से कर सके। बढ़ाने पर जोर दिया। आज उन्हीं की परम कृपा का फल हमारे ऐसे पूज्य गुरुदेव विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की सामने है दिल्ली स्थित वल्लभस्मारक। गुरु वल्लभ रूपी दिव्य अन्तर भावनाओं को साकार रूप देने वाला वल्लभ स्मारक की प्रकाश फैलाता स्मारक हमें प्रगति पथ पर आरूढ़ रहने की प्रेरणा विजय-पताका दशों दिशाओं को प्रकाशित करे, यही शासनदेव युग-युगों तक देता रहें यही कामना। से शुभकामना है। On se chy युगवीर - विजय वल्लभ साध्वी पीयुषपूर्ण श्री
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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