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पंजाब सदा से शौर्य, समर्पण एवं पराक्रम की भूमि रही है। इसी भूमि पर जिला फिरोजपुर में एक छोटा सा गांव लहरा है। जैसे छोटा सा बीज विशाल वट वृक्ष को जन्म देता है वैसे ही इस छोटे से गांव ने एक तेज स्फुलिंग का दर्शन कराया। आचार्य श्री विजानंद सरीश्वर जी म. का जन्म विक्रम सं. 1894 में चैत्र सुदी प्रतिपदा अर्थात् नववर्ष के प्रथम दिन हुआ। इनके पिता का नाम गणेश चन्द्र और माता का नाम रूपादेवी। बचपन का नाम दित्ताराम जाति कपूर क्षत्रिय उनका बचपन जीरा गांव में व्यतीत हुआ।
दित्ता की मेधा अत्यन्त तीव्र थी। वे स्थानकवासी साधुओं के सम्पर्क में आए। प्रभावित हुए और संवत् 1910 में मालेरकोटला में स्थानकवासी दीक्षा अंगीकृत की। शिष्य बने जीवनरामजी म. के नामकरण हुआ आत्मारामजी म. ।
मुनि आत्मराम जी म. ने ज्ञान-साधना और चारित्र पालन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। उनमें अदम्य ज्ञान-पिपासा थी। एक ही दिन में वे सौ श्लोक कंठस्थ कर लेते थे। उनमें उत्कट जिज्ञासावृत्ति थी, सत्यान्वेषण उनका मुख्य कार्य था। शास्त्रों की गहराई में जाकर तत्व खोजते थे। आगमों के गहन अध्ययन से उन्हें पता चला कि मैं जिस रास्ते पर चल रहा हूं वह शास्त्रसम्मत नहीं है। शास्त्रों में जिन प्रतिमा का समर्थन मिलता है। उन्होंने अपना मतपरिवर्तन करने का निश्चय कर लिया और अपने सत्रह साधुओं के साथ स्थानकवासी सम्प्रदाय छोड़ कर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के वयोवृद्ध साधुप्रवर श्री बुद्धि विजय जी म. के पास सं. 1932 में संवेगी दीक्षा अंगीकार की। नाम रखा गया मुनि आनंद विजय।
मुनि आनंद विजय जी को शास्त्रों का अपरिमित ज्ञान था, उनमें अद्भुत व्यक्तृत्व कला थी। उन्होंने समग्र गुजरात और राजस्थान में विहार कर जैन धर्म का प्रचार और प्रसार किया। पंजाब में आकर लोगों को सत्य का मार्ग बताया स्थानस्थान पर जैन मंदिरों की ध्वज पताका फहराई।
संवत् 1943 में समग्र भारतवर्ष के जैन समाज ने एकत्र होकर पालिताना में मुनि आनंद विजय को आचार्यपद से अलंकृत किया। इस पदवीदान समारोह में पैंतीस हजार लोग थे तब से उनका नाम आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. हुआ।
भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद एकसठदी पाट परंपरा पर आचार्य श्री विजयसिंह सूरि हुए। उनके बाद ऐसा कोई प्रभावशाली महापुरुष न हुआ जिसे श्रीसंघ ने आचार्य पद के योग्य समझा हो। 25 वर्ष के बाद जैन संघ को आचार्य श्री विजयानंद सरीश्वरजी म. मिले थे।
संवत 1949 में शिकागों में विश्वधर्म परिषद् The World's Parliament of Religions )का आयोजन हुआ था। इसमें सम्मिलित होने के लिए आचार्य श्री को आमंत्रित किया गया था। उन्होंने अपनी धार्मिक मर्यादा का पालन करते हुए असमर्थता व्यक्त की। फिर परिषद् ने उनसे अपना प्रतिनिधि भेजने का आग्रह किया। इस पर सूरिजी ने श्रीयुत वीरचन्द राघवजी गांधी को अपने पास छह महीने तक रखा और जैन दर्शन का ज्ञान कराया। उन्हें शिकागो में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा। श्री गांधी को वहां आशातीत सफलता मिली। सनातन जैन धर्म से पहली बार समग्र विश्व परिचित हुआ।
आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी म. का जीवन और कार्य अत्यन्त विस्तृत है। उन्होंने जैन धर्म को स्थिरता और विकास प्रदान किया, साथ ही उसे विश्व के रंगमंच पर ला रखा। उनमें अद्भुत कवित्व शक्ति थी। पूजाएँ, स्तवन और सज्झायों की उन्होंने रचनाएँ की हैं। कई उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखें है। उन्होंने आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म. को तैयार किया और अधूरे कार्य पूरा करने का उन्हें निर्देश दिया। संवत् 1953 में गुजरानवाला (पाकिस्तान) में उनका स्वर्गवास हुआ। जैन धर्म, समाज, साहित्य और संस्कृति पर उन्होंने जो उपकार किये हैं, चिरस्मरणीय रहेंगे।