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________________ 27 श्री आदिनाथ भगवान-मांगा वार्षिक यात्रा विधिवत प्रारम्भ हुई। गुरु वल्लभ के इस कांगड़ा प्राप्त इतिहास से पता चलता है कि कटौच राजवंश तीर्थ की शोभा में अभिवृद्धि करने तथा तीर्थोद्वार के अनेकों शताब्दियों तक जैनधर्म का श्रद्धालु रहा। राजा रुपचंद्र, राजा महत्वपूर्ण कार्यक्रम सम्पन्न हुए। अनेक महान विभूतियों, नरेंद्रचंद्र, राजा संसारचंद्र जैसे प्रतापी राजा जिन भक्ति करते भाग्यशाली महानुभावों ने अपने योगदान से इस महान् तीर्थ की रहे। राजा रुपचंद्र ने तो नगरकोट कांगड़ा में भगवान महावीर का सेवा की। इतिहासज्ञ श्री अगरचंद नाहटा न बीकानेर के अपने संदर मंदिर भी बनावाया तथा उसने शत्रजय तीर्थराज के ज्ञान-भंडार से, कांगड़ा तीर्थ सम्बन्धी अनेकों महत्वपूर्ण दर्शन-हेत अभिग्रह धारण करके अपने प्राणों का भी बलिदान ऐतिहासिक पत्र खोज निकाले, जिनसे पता चला कि पूर्वकाल में कर दिया। कांगड़ा नगर में पांच जैन मंदिरों का होना, जैनों के महामनिराज तथा विशाल यात्रा संघ इस पावन तीर्थधाम की गौरव का साक्षी है। कांगड़ा जैन नगरी कहलाती थी। राजा एवं यात्रा के लिए आते रहे तथा इस के सौंदर्य एवं इतिहास उजगार प्रजा पर जैनधर्म की गहरी छाप थी। परन्तु भाग्य की विडम्बना! करते रहे। सभा कांगड़ा तीर्थ का श्रृंगार, प्रभ आदिनाथ की वर्तमान विशाल इन पत्रों तथा "विज्ञप्ति-त्रिवेणी” जैसे महा-निबंध से प्रतिमा, क्रूर काल के हाथों से बची रही। एक ब्राह्मण-पुजारी स्पष्ट है कि कांगड़ा तीर्थ पांडव काल में, कटीचवंश के शूरवीर परिवार चिरकाल तक भैरवदेव के रूप में तैल-सिंदूर से इसके राजा श्री सुशचंद्र के कर-कमलों से किला कांगड़ा में स्थापित प्रतिमा का पूजन करता रहा। अंतत: भाग्योदय से गुरुवल्लभ ने हुआ और मूलनायक भगवान आदिनाथ वेदिका पर शोभायमान इसे खोज निकाला और सन् 1923 में होशियारपुर से विशाल हुए। भगवान श्री नेमिनाथ के परम उपासक होने के कारण थी यात्रा संघ के साथ, इस तीर्थ के बंद द्वार खोलने का गौरव प्राप्त सश चंद्र ने श्री नेमिनाथ की अधिष्टायिका माता अम्बिका को किया। 'वंदे युगादि जिनवरम-आत्म-वल्लभ सद्गुरुम'। 'जय जिन मंदिर से संलग्न वेदिका पर विराजमान कर अपनी कुलदेवी भगवती चक्रेश्वरी अम्बिके मातेश्वरी' की ध्वनि से आकाश गँज के रूप में मान्यता प्रदान की। उठा। गुरु वल्लभ और कांगड़ा तीर्थ -शान्तिलाल नाहर इतिहास प्रत्येक संस्था की जीवन-झांकी है। अत: इतिहास की खोज और सुरक्षा परम आवश्यक है। सन् 1916 में मान्य इतिहासविद श्री मुनि जिन विजय जी ने पाटन के भंडार से, कांगड़ा तीर्थ के विशाल ऐतिहासिक-पत्र "विज्ञप्तित्रिवेणी' को खोज निकाला और पुस्तकाकार में उसे प्रकाशित किया। सन् 1923 में, श्रद्धेय जैनाचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी, इस पुस्तक को पढ़ कर, लप्त-प्राय कांगडा महातीर्थ को पन: प्रकाश में लाये और समाज के प्रतिष्ठित महानुभावों तथा महासभा पंजाब के माध्यम से तीर्थोद्वार में संलग्न हुए। सन् 1949 में कांगड़ा तीर्थ की
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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