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जल में कमल
हृदय में पहली बार विचार आया कि मैं कब तक इसे रोके रहंगा? और इतिहास का दिग्दर्शन कराने का विनम्र प्रयास है।
खीमचन्द भाई ने पूछा-"क्या बिस्तर नहीं थे जो जमीन पर यद्यपि आचार्य विजय वल्लभ शास्त्रार्थ में विश्वास नहीं सो रहा है? लोग मझे क्या कहेंगे?
रखते थे। वे समन्वय के इच्छुक थे। पर अगर सामने वाला पक्ष खीमचंद भाई के लिए यह बात असहयथी कि मेरा छोटा भाई छगन ने जवाब दिया-"लोग क्या कहेंगे? इसी के डर से मैं उसके लिए ललकारता था तो वे पीछे नहीं हटते थे। छगन वैराग्य के पथ पर बढ़े। छगन को दीक्षा की अनुमति वे अपना नियम कैसे तोड़ सकता हूं?"
समाना शहर पंजाब का एक प्रमुख शहर है। यहां स्वप्न में भी न दे सकते थे। वे छगन को येनकेन प्रकारेण संसारी इतने में छगन से बड़ी रुक्मणी बहन भी संथारा लेकर वहां बनाना चाहतेथे। पर छगन की रूचि धार्मिक कार्यों में अधिक आ पहुंची। और अपने लाड़ले छोटे बेटे भाई को ऐसी अवस्था में
संख्या में थे। आचार्य विजय वल्लभ का वहां पधारना हुआ। थी। वह दिन भर धर्म-कर्म-अध्ययन में ही लगा रहता था। सोता देख उसका भगिनी हृदय दयार्द हो गया। भाई का वात्सल्य
आत्मारामजी म. के स्वर्गवास के बाद उनका नाम विद्वान वक्ता खीमचंद यही सोचा करते थे कि कोई ऐसा प्रसंग उपस्थित हो आंखों से आंसू बनकर बह निकला। उसने आँसू पोंछते हुए संथारा
के रूप में प्रसिद्ध हो गया था। और हो रहा था। धूमधाम से नगर जिससे छगन के भाव बदल जायें। बिछाया आर प्रेम से छगन को लिटा दिया। वह खीमचंद की ओर
प्रवेश हुआ। प्रवचन हुआ। वाणी का जादू फैला और दिनोंदिन
श्रोताओं की भीड़ बढ़ने लगी। कई स्थानकवासी भी आकर्षित ऐसा अवसर भी आया। उनके मामा जयचंद भाई के लड़के देखकर बोली भाई! क्यों इसे दःखी करते हो उसे अपने रास्ते जाने
टोज। सीमचंट ने लंबी मांग बींचकर काट मोचते हा जला हुए। वहां एक "अधं पंडित" सरजनमल नाम के स्थानकवासी नाथालाल के विवाह का प्रसंग उपस्थित हुआ। खीमचंद भाई ने दो न। खीमचंद ने लंबी सांस खींचकर कुछ सोचते हुए उत्तर छगन को इस अवसर पर ले जाने का निश्चय किया। उनके मन में दिया- हां, बहन मैं भी यही सोच रहा हूँ।
श्रावक थे। वे एक दिन आचार्य श्री के पास आए और विवादास्पद यह विश्वास बैठ गया कि लग्नोत्सव का वह मादक वातावरण, दूसरे दिन बरात पालेज पहुंची। जब वर-कन्या का
चर्चा करने लगे। दो-चार प्रश्नोत्तर में ही उनका ज्ञान घट खाली
हो गया। तब उन्होंने आचार्य विजय वल्लभ से कहा-'यदि आप शहनाइयों के हवा में गूंजते स्वर, बैंड बाजों की उत्तेजक धुने, हस्तमिलाप हो रहा था, जब शहनाइयों के सुर हवा में तैर रहे थे, महिलाओं के वे मधुर गीत और वर-वधू का भव्य ठाठ देखकर जब बाजे मादक संगीत में वातावरण प्रसन्नता भर रहे थे और
हमारे पूज्य श्री सोहनलाल जी म. से शास्त्रार्थ करने को तैयार हो निश्चित छगन का मन पलट जाएगा। छगन ने विवाह में जाने से जब महिलाएं अति उत्साह में मधुर गीत गा रही थीं, तब छगन
तो मैं उन्हें बुलाऊं। यदि वे हार जायेंगे तो मैं भी मूर्तिपूजक बन इन्कार कर दिया। खीमचंद भाई ने कहा-'अगर छगन नहीं पालेज के मंदिर में पूजा कर रहा था।
जाऊंगा और यदि आप हार जाएं तो आप स्थानकवासी हो जाएं। जाएगा तो मैं भी नहीं जाऊंगा। अन्त में सब के अनुरोध पर छगन
विजय बल्लभ ने मुस्कराते हुए कहा-"अच्छा ठीक है। जैसी ने बरात में जाना स्वीकार किया।
तुम्हारी इच्छा। शास्त्रार्थ
लाला सुरजनमल और दो चार प्रमुख श्रावक कैथल गांव गए रात को भोजन के बाद बरात मामा की पोल में रुकी। स्टेशन
जहां सोहनलाल जी म. थे। उन्हें सारी बातों से अवगत कराया वहां से पास था और प्रातःकाल जल्दी ही प्रस्थान करना था
और अपनी प्रतिज्ञा भी सुनाई। इसलिए सभी बराती वहां आ रहे थे।
वह जमाना शास्त्रार्थ का था। विद्वान लोग शास्त्रों के
नचाहते हए भी चौदह साधओं के साथ सोहनलाल जी म. छगन को इस स्थान का पता था। अतः सब से पहले ही वहां विरोधाभासों पर बहस करते थे। 'मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना' के
समाना पधारे। सारे शहर में "शास्त्रार्थ" होने की खबर हो पहुंच गया और एकान्त कोने में प्रतिक्रमण करके दुपट्टा बिछा कर अनुसारला अनुसार लोगों में मत-पंथ-और विचार में साम्य नहीं होता। जब
गयी। स्थान-स्थान पर उसी की चर्चा होने लगी। सो गया।
लोगों के विचार साम्य न होंगे तो शास्त्र कैसे साम्य हो सकते हैं? उसको बनाने वाले कुछ समझदार लोग ही तो थे। विद्वानों के दो
लाला सरजनमल ने सोहनलालजी म. से कहा-"महाराज! पूरी बरात आयी। सब लोगों ने अपने सोने का प्रबन्ध किया। पक्ष हो जाते थे और युक्ति प्रयुक्ति के द्वारा दूसरे पक्ष को झूठा अब शास्त्राथ का तयारा हाना चाहिए। खीमचन्द भाई जो अब तक व्यवस्था में लगे थे, सोने लगे तो बताने का प्रयत्न चलता था। इसमें सत्य का विवेचन तो कम होता सोहनलालजी म. ने कहा-"श्रावक जी। शास्त्रार्थ किस के छगन की सुधि आई सोचा, अवसर पाकर कहीं भाग तो नहीं था। पर ईष्या, द्वेष और बैर का नम्रता पूर्वक प्रदर्शन ही अधिक साथ करेंगे जब इसके गुरु आत्माराम जी ने भी हमारे प्रश्नों का गया। बहुत खोजने के बाद एक कोने में गठरी सी पड़ी दिखाई दी। होता था। अब उसका समय नहीं रहा और न कोई महत्व रहा उत्तर न दे पाये तो यह कैसे दे सकता है।" करीब जाकर देखा तो छगन सिकड़कर हाथों पर सिर रखे निर्चित गया है। पर उस समय उसका बड़ा महत्व था। अब समन्वय का श्रावक जी ने प्रसन्न होकर कहा-तब तो और अच्छी बात होकर सो रहा है। हाय! मेरा प्यारा भाई इस दशा में पड़ा है। समय आया है। अनेकता में एकता का सिद्धान्त चमका है जो होगी, जब वह हार जाएंगे तो तत्काल स्थानकवासी हो जाएंगे। खीमचंद ने उसका संथारा (ऊनी बिस्तर) छिपा दिया था। पर यह मानवजाति के लिए वरदान है। निम्नलिखित प्रसंग द्वारा किसी बात बड़ी मनोरंजक थी और कुतूहल पैदा करती थी। पर वह उसके बिना भी सब से सो रहा था। तब खीमचंद भाई के कठोर को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं है, पर उस समय के वातावरण जितनी सरल लगती थी उतनी असंभव भी थी।