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________________ सर्वस्व, हृदय के टुकड़े को बोहरा देना कोई खेल नहीं। यह वही समझते थे। इस लिए स्वभावतः उन्होंने छगन को सांसारिक विजय वल्लभ को विजयानन्द्र सरि म ने एक विशेष कार्य के लिए माता कर सकती है जिसके रोम-रोम में देव, गुरु और धर्म बसे बनाने का प्रयत्न किया। भातृत्व का स्नेह किस में नहीं होता. क्या तैयार किया था। हो। जिसकी प्रत्येक धड़कन के साथ अरिहंत जुड़े हों। नन्दिवर्धन ने वर्धमान स्वामी को दीक्षा लेने से न रोका था? अनेक विजय वल्लभ का अध्ययन क्षेत्र गहन और व्यापक था। श्राविका जीवन की चरम स्थिति या श्राविका जीवन की विघ्नों के बाद छगन को दीक्षा की अनुमति मिली। जो काम अनेक उन्होंने अपना उत्तरदायित्व समझ लिया था। विजयानन्द सरि सफलता जिनशासन के लिए अपने मातृत्व के बलिदान कर देने विघ्नों के बाद होता हैं उसके परिणाम अच्छे होते हैं। म. क्या चाहते थे यह वह अच्छी तरह जानते थे। वे आजीवन में है। पाहिनी और नाथीबाई श्राविका जीवन की उत्कृष्ट भूमिका विजय वल्लभ के जीवन की एक महत्वपूर्ण बात समझ लेना स्वीकार करते रहे कि मैं जो कुछ हूं विजयानंद सूरि म. की बदौलत में पहुँच चुकी थीं। नारी का मूल धर्म समर्पण है और जहां समर्पण आवश्यक है। जब वे किसी कार्य को अच्छा समझ कर करने के हूँ। विजयानंद सूरि म. के चले जाने के बाद उनका अध्ययन भी है वहाँ माधुर्य संगीत और आनंद है, परंतु यह समर्पण देव होना । लिए कदम उठाते थे तो उसे पूरा करके ही छोड़ते थे। चाहे लाख पूरा हो जाता है और वे कटिबद्ध होकर सामाजिक क्षेत्र में उतर चाहिए असुर नहीं, आचरण के सम्मुख होना चाहिए अत्याचार के विघ्न आ जाएं। उनमें यह गुण बचपन से ही विद्यमान था। पड़ते हैं। सामने नहीं, पोषण में होना चाहिए अत्याचार के सामने नहीं, उन्होंने दीक्षा लेने का निर्णय किया और अनेक बाधाओं के विजय वल्लभ में वक्तत्व की अदभत कला थी। प्रथम शोषण में नहीं। बावजद दीक्षा ली और वह भी बड़े ठाठ से। संसार में या समाज में प्रवचन उन्होंने विजयानंद सरि म. की उपस्थिति में जोधपुर के संध्या का समय था। सूर्यास्त हो रहा था और उसके साथ ही चाहे भूचाल आ जाएं, चाहे प्राणोंसे हाथ धोने पड़े, पर अपने लक्ष्य आहोरी हवेली में किया था। सामाजिक क्षेत्र में आने के बाद वे माता इच्छाबाई का जीवन भी अस्त हो रहा था। इच्छाबाई के एवं कर्तव्य से वे कभी डिगे नहीं। सुप्रसिद्ध वक्ता बन गए। उनके अनगिनत कार्यों के पीछे उनकी मन में भी यही पवित्र भावना थी कि मेरा कोई लाल जिनशासन अद्भुत बक्तृत्व कला का जादू है। एक उदाहरण काफी होगा। को समर्पित हो जाए। कोई अरिहंत के चरणों में चला जाए और अध्ययन और प्रवचन गुजरात के ऐतिहासिक नगर पाटण में उनका पावन पदार्पण अन्तिम समय में वह भावना अवसर पाकर प्रकट होती है। छगन विजय वल्लभ लगभग नौ वर्ष तक विजयानन्द सूरि जी म. के , हआ। विजय वल्लभ की इच्छा यहां प्राचीन एवं आधुनिक रोते हुए पूछता है कि माँ! तू मुझे किसके सहारे छोड़ कर जा रही सानिध्य में रहे थे। विजयानन्द रिम, अप्रतिम प्रतिभा के धनी साहित्य के लिए 'हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भंडार' की स्थापना तो उसने कंपित ओठों से इतना ही कहा कि तू अरिहंत की शरण में थे। पिछली तीन शताब्दियों में जैन धर्म को ऐसा महापुरुष नहीं करने की थी। उन्होंने वहां के स्थानीय लोगों को जैन ज्ञान भण्डार चले जाना वही शाश्वत शरणदाता है। मैं उसी के आधार पर तुझे मिला था। वह युग भारत के इतिहास में नव जागरण एवं नव एव नव की उपयोगिता बताई और व्यक्तिगत रूप से उसके लिए रुपये छोड़कर जा रही हूँ और नन्हें छगन ने जब इस आज्ञा को निर्माण का था। पढ़े लिखे लोगों में देशाभिमान जन्म लेने लगा। एकत्र होने लगे। बहुत समय बीत गया पर उसके लिए पर्याप्त शिरोधार्य किया तो मां की आंखों में अपने जीवन की सफलता के था। यहीं से आधुनिक युग का प्रारंभ होता है और विजयानन्द सूरि " धन राशि एकत्र न हो पाई। कार्यकर्ताओं ने विजय बल्लभ से बात आनंदाश्रु भर आए। चहेरे पर एक अनोखी दीप्ति छा गई। छगन म. में आधुनिकता का जन्म हो गया था। इसी लिए उन्होंने विजयी पप की। कार्य कुछ असम्भव सा जान पड़ा। दूसरे दिन विजय बल्लभ के सिरपरमां के हाथ थे की शरणनिर्विघ्न हो और मां सदा के लिए वल्लभ को सरस्वती मंदिरों की स्थापना करने की प्रेरणादी थी। ने अपने प्रवचन में ज्ञान की उपयोगिता. पाटण की प्रभताजैनों की छगन को छोड़कर चली गई। जब वह जा रही थी तब उसके मुख प्रत्येक महापरुष को अपने बाद के पट्टधर की चिन्ता रहती दानवीरता. हेमचन्द्राचार्य का साहित्य में योगदान और जैन पर श्राविका जीवन की सफलता का परितोष था। मैं कुछ जिन है। वे सदैव ऐसे व्यक्ति की खोज में रहते हैं जो उनके विचारों की शास्त्रों की दर्दशा पर एक ऐसा प्रभावशाली और मार्मिक चित्र शासन के काम आई, इस बात का आनंद था। श्राविका वही है जो प्रतिछाया हो, अधूरे कार्यों को पूरा कर सके। विजयानन्द खींचा कि महिलाओं ने गहने उतार कर ढेर कर दिए। परुषों ने मत्य के समय में भी अपने देव, गरु और धर्म की चिन्ता करे। सूरीश्वर जी म, को भी यह चिन्ता थी और उसी समय उन्हें वे कठियां और अंगठियां उतार दीं। जिनके पास नकद था उन्होंने ठरान के जीवन में संयम के बीज बोये थे इचठाबार्ट ने सभा गुण तरुण मान विजय वल्लभमदिखाई पड़ा उन्हान नकद दिया। पाटण के इतिहास में यह पहला अवसर था कि एक पल्लवित किया था आचार्य श्रीविजयानन्द सरिने रस दिया था हर्षअपना प्रतिबिम्ब विजय वल्लभ मलाक्षत हुआ। उन्हान आचार्य की प्रेरणा से लोगों ने आभषण उतार दिए हों। वे विजय ने। उस बीज को नष्ट करने के लिए प्रकृति ने अनेक अपने विचारों के अनुसार विजय वल्लभ जो गढ़ना प्रारम्भ परिस्थिति का ऐसा ह बह चित्रण करते थे कि लोग उस प्रवाह में बाधाएँ उपस्थित की, पर बीज न हिला न डला न पसीजा न किया। एक प्रसंग से यह बात स्पष्ट होगी। बह जाते। वे करुण स्थिति का वर्णन करते थे तो लोग रो पड़ते हारा। छगन की दीक्षा में सब से अधिक विघ्न उन्हीं के भाई __पंजाब के किसी शहर में विजयानन्द सरि म. के पट्टे के पास थे। कभी वीर रस का विवेचन करते तो लोगों की भजाएं फड़कने खीमचन्द्र ने डाले। पिताजी चल बसे थे। माता की छाया भी उठ तरुण मुनि वल्लभ विजय किसी सूत्र की गाथा रट रहे थे। उस लगतीं। जो एक बार उनका प्रवचन सुन लेता वह सदा के लिए गई थी परिवार की सम्पूर्ण जिम्मेवारी खीमचन्द्र पर थी। वे इस समय एकश्रावक ने सरि जीसे पूछा ये बालमुनि पंजाब में पढ़ रहे उनका भक्त बन जाता उनके प्रवचन में एक गरीब आदमी से जिम्मेवारी को खूब समझते थे। छगन को पढ़ाना-बढ़ाना, हैं।" विजयानन्द सूरि म. ने बल्लभ विजय को पंजाब पढ़ाया था लेकर राजा और महाराजा भी आते थे। राजा और नवाब उनको lnin Ed.व्यवहार कुशल बनाना,सांसारिक बनाना वे अपना मुख्य कर्तव्य इसलिए वे जीवन के अन्तिम समय तक पंजाबपंजाब रटते रहे। प्रवचन करने के लिए अपने राजदरबार में आमन्त्रित करते थे।
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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