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[४०] देवकरणजीके पाँवमें काँटा चुभ गया। सं.१९५८का चातुर्मास उन्हें बोरसदमें करना था, किन्तु काँटा चुभनेसे पाँव पक गया और हड्डी सड़ने लगी इसलिए चातुर्मास अहमदाबाद करनेका निश्चित किया और मुमुक्षुभाइयोंने डोलीमें बिठाकर उन्हें अहमदाबाद भेजा। वहाँके परिचित स्थानकवासी तथा अन्य मुमुक्षुवर्गने उनकी बहुत सेवा की। क्लोरोफोर्म सुंघाकर उनके पाँवका ऑपरेशन करनेका डॉक्टरका अभिप्राय था, परंतु श्री देवकरणजी बेभान रहना नहीं चाहते थे अतः क्लोरोफोर्मके बिना ही ऑपरेशन करना पड़ा। सात बार पुनः पुनः ऑपरेशन करना पड़ा परंतु क्लोरोफोर्म न सँघा सो न ही सूंघा। अन्ततः इस चातुर्मासमें ही अहमदाबादमें श्री देवकरणजीका देहावसान हो गया। श्री चतुरलालजी उनके साथ अहमदाबादमें थे। उनकी उत्कण्ठा श्री लल्लजी स्वामीके पास जानेकी थी अतः करमाला पत्र लिखवाकर उनकी आज्ञा माँगी। आज्ञा मिलनेपर चातुर्मास पूर्ण होनेके बाद वे करमालाकी ओर गये।
श्री लक्ष्मीचंदजी आदि मुनि जो श्री देवकरणजीके साथ अहमदाबाद चातुर्मासमें थे, उन्हें श्री लल्लुजी स्वामीने करमालासे आश्वासनका पत्र लिखा था। उसमें लिखा कि
“उनको आत्मस्वरूपका लक्ष्य लेनेकी इच्छा थी, वह गुरुगमसे प्राप्त हुई थी...वे शुद्ध आत्मा आत्मपरिणामी होकर रहते थे। ऐसे आत्माके प्रति हमारा नमस्कार हो! नमस्कार हो!
'सम्यक् प्रकारसे वेदना सहन करनेरूप परम धर्म परम पुरुषोंने कहा है। तीक्ष्ण वेदनाका अनुभव करते हुए स्वरूपभ्रंश (भ्रष्ट) वृत्ति न हो यही शुद्ध चारित्रका मार्ग है। उपशम ही जिस ज्ञानका मूल है उस ज्ञानमें तीक्ष्ण वेदना परम निर्जरारूप भासने योग्य है।'-मुनि देवकरणजीको प्रबल वेदनी वेदते हुए तथा मरण-उपसर्गके अवसरपर भी समभाव रहा, वह निर्जरा है। अब जैसे भी हो सके अप्रतिबद्धता और असंगता प्राप्त करना ही योग्य है।
...मुनिवरोंको उन मुनिश्रीका समागम संयममें सहायक था, वैराग्य, त्यागकी वृद्धिमें कारणभूत था। हमें भी उसी कारणसे खेद रहता है। किन्तु अब हमें खेद नहीं करना चाहिए। हमें और आपको एक सद्गुरुका आधार है, वही शरण है...सब भूलने जैसा है...जो नाशवान है उसे देरअबेर छोड़ना ही पड़ेगा...परभावकी विस्मृति हो वैसा कर्तव्य है।........पाँचवें सुमतिनाथके स्तवनमें बाह्यात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका संकेत कर दिया है, उसे याद कर चित्तवृत्तिको स्वरूपमें संलग्न करियेगा...गौतम स्वामीने भी महावीरपरसे राग उतारा था। एक सद्गुरुके स्वरूपमें चित्तको जोड़ें.....जो मंत्र दिया है उसे बहुत बार स्मरण कीजियेगा। घबरानेकी कोई बात नहीं है, घबराइयेगा नहीं।"
श्री देवकरणजीका स्वभाव सिंहके समान शूरवीर था। कालने काँटा चुभाकर संकेत दिया और मरजिया होकर मृत्युवेदनाकी चुनौती उन्होंने स्वीकार कर ली। उनकी व्याख्यानकी प्रभावकता ऐसी तो खुमारी-भरी थी कि एक बार भी उनके व्याख्यानको सुननेवाला छह-छह महीने तक उनके उपदेशको नहीं भूलता था। श्रीमद्जी उन्हें प्रमोदभावसे 'देवकीर्ण' नामसे सम्बोधित करते थे।
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