Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना
पर जो प्रकाश पड़ता है वह महत्वपूर्ण है । अतएव संक्षेपमें उसकी यहीं समीक्षा कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है:
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१. पं. फूलचन्द्रजीने कहा है कि लोकके उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात राजुको मान्यताको स्थापित करनेवाले धवला के कर्ता वीरसेनाचार्य ही हैं। उनसे पूर्व वैसी मान्यता नहीं थी, जैसा कि राजवार्तिक आदि ग्रंथोंसे स्पष्ट है । तिलोयपण्णत्ति में यही वीरसेन द्वारा स्थापित मान्यता ही स्वीकार की गई है। अतएव यह रचना अपने वर्तमान रूपमें वीरसेन के पश्चात्कालीन प्रतीत होती है ।
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इसके विरुद्ध पं. जुगलकिशोरजीने तीन उल्लेख उपस्थित किये हैं जो उनके मतसे, वीरसेन से पूर्वकालीन होते हुये लोकको उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात राजु प्रमाणित करते हैं । उनमें से एक उल्लेख जिनसेनकृत हरिवंशपुराणका है, दूसरा स्वामि- कार्तिकेयानुप्रेक्षाका और तीसरा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका । हरिवंशपुराणमें लोकको चतुरस्रक तो कहा है, परन्तु उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात राजुकी मान्यताका वहां कोई पता नहीं है । चतुरस्रकका अभिप्राय समचतुरस्रक भी हो सकता है । यदि चतुरस्रक कहने मात्र से ही आयतचतुरस्रककी मान्यताका अनुमान किया जा सकता हो तो हरिवंशपुराण में ही स्पष्टतः वीरसेनको गुरु कहकर स्मरण किया गया है, उन्हें कविचक्रवर्तीकी उपाधि भी दी गई है और उनकी निर्मल कीर्तिका उल्लेख किया है। यही नहीं, किन्तु वीरसेन के शिष्य जिनसेनका और उनकी रचना पाश्र्वाभ्युदयका भी वहां उल्लेख है । इस परिस्थितिमें यह कैसे कहा जा सकता है कि इरिवंशपुराणका उल्लेख वीरसेन से पूर्वका है और उक्त पुराणकार वीरसेनकी रचनासे अपरिचित थे ! इसके विपरीत उक्त उल्लेख से तो यही सिद्ध होता है कि इरिवंशपुराणकार वीरसेनकी रचनासे सुपरिचित और प्रभावित थे ।
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हां, स्वामि- कार्तिकेयानुप्रेक्षा में अवश्य लोकके उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात राजुकी मान्यता सुस्पष्ट है । किन्तु पंडितजीने इसके रचनाकालके सम्बन्ध में केवल इतना कहा है कि वह एक बहुत प्राचीन ग्रंथ है और वीरसेन से कई शताब्दि पहलेका बना हुआ है । किन्तु इस ग्रंथके वीरसेनसे पूर्ववर्ती होने का उन्होंने एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया । इस परिस्थितिमें उक्त उल्लेख को वीरसेन से पूर्ववर्ती मानना सर्वथा निराधार है ।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें भी उक्त मान्यताका ग्रहण सुस्पष्ट है । किन्तु इसका समयनिर्णय सर्वथा काल्पनिक है, निश्चित नहीं । मुख्तारजीने स्वयं कहा है “ यदि यह कल्पना ठीक हो तो.... जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका समय शक्र ६७० अर्थात् वि. सं. ८०५ के आस-पासका होना चाहिये " किन्तु जब तक 'कल्पना' को निश्चयका रूप न दिया जाय तब तक उसके आधारपर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति धवलासे पूर्वकालीन नहीं स्वीकार की जा सकती । स्वयं प्रथकारके
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