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प्रस्तावना :: 33
शुभास्रव के कारण एवं कार्यों का वर्णन व्रतों के स्वरूप द्वारा किया गया है। पाँचों व्रतों की पाँच-पाँच भावनाओं के स्वरूप को हिन्दी टीका में सहेतु खुलासा किया है। इस अधिकार में कुल 105 श्लोक हैं।
पाँचवाँ अधिकार बन्ध तत्त्व का विस्तार से वर्णन करने वाला है। इस अधिकार का आधार तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ का आठवाँ अध्याय है। इस अधिकार में कर्मों की मूल तथा उत्तर प्रकृतियों के नाम, लक्षण तथा उनकी स्थिति आदि का वर्णन किया गया है। इस अधिकार में मात्र 54 श्लोक हैं।
छठा अधिकार संवरतत्त्व का वर्णन करने वाला है। इस अधिकार का आधार तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के नवम अध्याय के संवर का लक्षण एवं कारण-कार्य रूप प्रारम्भिक गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय एवं चारित्र, इन सबकी परिभाषाएँ, भेद-प्रभेद का कथन लक्षणों सहित किया है। इस अधिकार में कुल 52 श्लोक हैं।
सातवाँ अधिकार निर्जरा तत्त्व का कथन करने वाला है। इस अधिकार का आधार भी तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के नवम अध्याय को निर्जरा में कारणभूत तप विशेष के सूत्रों को बनाया है। इसमें बारह तपों का सहेतुक वर्णन किया है। इस अधिकार में कुल 60 श्लोक हैं।
आठवाँ अधिकार मोक्षतत्त्व का कथन करने वाला है। इस अधिकार का आधार तत्त्वार्थसत्र ग्रन्थ के दशवें अध्याय को बनाया है। मोक्षतत्त्व का लक्षण, उसकी प्राप्ति के उपाय का कथन युक्तिपूर्ण शैली में किया गया है। शोधार्थी ऐसा मानते हैं कि अमृतचन्द्र आचार्य ने अकलंकाचार्य के राजवार्तिक के कितने ही वार्तिकों को श्लोक रूप देकर अपने ग्रन्थ का अंग बना लिया। इस अधिकार में कुल 55 श्लोक हैं।
नौवाँ अधिकार सम्पूर्ण ग्रन्थ का उपसंहार है, सिंहावलोकन है, अथवा चूलिका है। अमृतचन्द्राचार्य ने अन्त में उपादेयभूत कथन किया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि प्रमाण, नय, निक्षेप तथा निर्देश आदि के द्वारा सात तत्त्वों को जानकर मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए। निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। इनमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन हैं। अपने शुद्धात्मा का श्रद्धान, ज्ञान तथा राग-द्वेषरहित चारित्र निश्चय मोक्षमार्ग है और पर-आत्माओं का जो श्रद्धान आदि है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है। निश्चय मोक्षमार्ग मोक्षप्राप्ति का साक्षात् कारण है। व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का साधक होने के कारण परम्परा से मोक्षमार्ग है। सम्यग्दृष्टि जीव अपने श्रद्धान को दोनों मोक्षमार्ग के अनुरूप दृढ़ रखता है। जो अकेले निश्चय मोक्षमार्ग को अपनाकर व्यवहार मोक्षमार्ग की उपेक्षा करके उसका उपहास उड़ाते हैं वे निश्चयाभासी हैं। उन्हें अमृतचन्द्राचार्य ने बाल-अज्ञानी संज्ञा से सम्बोधित किया है।112
जो निश्चयनय को न जानता हुआ निश्चय से उसी का आश्रय लेता है जिससे बाह्य क्रियाओं की प्रवृत्ति में आलसी होकर सम्यक् चारित्र को भी नष्ट कर देता है। जो एकान्त से निश्चयनय या व्यवहारनय को ठीक से न समझकर उल्टा पकड़कर बैठे हैं उन्हें निश्चयाभासी और व्यवहाराभासी कहा जाता है। इसी प्रकार जो निश्चयनय एवं व्यवहारनय के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से न समझकर दोनों को ही अन्ध श्रद्धा से अपना लेते है वे भी उभयाभासी कहे जाते हैं। इस प्रकार ये तीनों ही आभासी मोक्षमार्ग से अतिदूर हैं। अत: इन तीनों की धारणाओं को युक्तिपूर्वक दूर करके सच्चा मोक्षमार्गी बनने का कथन इस चूलिका में किया गया है। इस नौवें अधिकार में कुल 23 श्लोक हैं।
110. तत्त्वा. सार. प्रस्ता. पृ. 34-36, सम्पा. पन्नालाल साहित्यचार्य 111. स. सा., ता. वृ., गा. 321 112. पुरु. सि. श्लो. 50
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