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32 :: तत्त्वार्थसार
किया है। पश्चात् जीव के संसारी और मुक्त के भेद से दो भेद करके संसारी जीवों का वर्णन गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओं के द्वारा किया है। इससे अमृचन्द्रसूरि की अहिंसाप्रियता का पता चलता है, क्योंकि जीवराशि के ज्ञान बिना उसकी रक्षा किस प्रकार हो सकती है? श्लोकों के शब्द सामान्य से किन्हीं ग्रन्थों का भावसादृश्य होना सहज है, क्योंकि शब्द संख्यात हैं। फिर भी तारतम्यता या विषयवस्तु के पुष्टीकरण के लिए आचार्य अन्य आचार्यों की कृतियों की शब्दावलियों का सहारा भी लेते हैं, यह उन आचार्यों की अपनी नम्रवृत्ति आदि का ही द्योतक है।
इस अधिकार में जीव के भावों वर्णन करते हुए अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक का वर्णन किया गया है। इसमें तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय के सम्पूर्ण विषय को कई विशेषताओं के साथ संकलित किया है, जिनका सम्पुष्टीकरण सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक ग्रन्थों के आश्रय से किया है। द्वितीयाधिकार में कुल 238 श्लोक हैं।
तृतीयाधिकार में अजीव तत्त्व के वर्णन में प्रसंगानुसार छह द्रव्यों का स्वरूप, उनके प्रदेश, उपकार पुद्गल के भेद-प्रभेदों का कथन है। इस अधिकार में तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के पाँचवें अध्याय को आधार बनाया गया है। हिन्दी अनुवाद में छहों द्रव्यों के स्वरूप को आधुनिक विज्ञान के द्वारा भी खुलासा किया है जो अन्यत्र अनुपलब्ध है। इस अधिकार में कुल 77 श्लोक हैं।
चतुर्थाधिकार में आस्रव तत्त्व का वर्णन है। इसमें तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के छठे एवं सातवें अध्याय को आधार बनाया गया है। ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव में जिन कारण एवं कार्यों को तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में कहा, उन्हीं को राजवार्तिक ग्रन्थ से सम्पुष्ट करके इस अधिकार में विशेष खुलासा किया है। हिन्दी सम्पादन में आस्रव की कारणभूत पच्चीस क्रियाओं का सहेतुक विशेष वर्णन है। अशुभ नामकर्म के हेतुओं पर अमृतचन्द्राचार्य ने जो प्रकाश डाला है वह वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विशेष ध्यान देने योग्य है।
मन, वचन एवं काय की कुटिलता, विसंवाद करने का स्वभाव, मिथ्यात्व का पोषण, झूठी गवाही देना, चुगली करना, चित्त को अस्थिर रखना, विष का प्रयोग करना, ईंट का भट्टा पकाना, जंगल-खेत आदि में ईर्ष्या आदि के कारण आग लगाना, जिनमन्दिर के बगीचे एवं साधु निवास स्थान को नष्ट करना, जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को चढ़ाने योग्य गन्ध (चन्दन-केशर) पुष्पों की माला एवं धूप आदि सामग्री की चोरी करना या इन्हें चढ़ाने का निषेध करना, ये सब अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं।108 पूज्यपादाचार्य ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचारों में एक अतिचार अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान की व्याख्या में लिखा है कि अरहंत और आचार्यों की पूजा के उपकरण गन्ध, माला और धूप आदि को तथा अपने ओढ़ने आदि के वस्त्रादि पदार्थों को बिना देखे और बिना परिमार्जन किये हुए ले लेना अतिचार है। इससे स्पष्ट तात्पर्य तो यही है कि परमेष्ठी की पूजा-सामग्री में गन्ध, माला और धूप चढ़ाना पूज्यपादाचार्य एवं अमृतचन्द्राचार्य को भी इष्ट था। अन्यथा इनका कथन अपने ग्रन्थों में क्यों करते?
आज भी विशेष पर्व-उत्सवों में, रथयात्रा आदि के प्रसंगों में श्रीजी (जिनेन्द्रदेव) की फूलमाल की बोली लगाई जाती है, चाहे वह माला असली फूलों की हो अथवा प्रतीक रूप में लवंग, कागज, या प्लास्टिक की हो, आज भी प्रयोग करते हैं।
108. तत्त्वा. सा., चतु. अ., श्लो. 44-47 109. सर्वा. सि. अ. 7, वृ. 721; भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण
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