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( २२ ) श्री मदाचार्य चरण सर्वनिर्णय में आविर्भाव तिरोभाव का वर्णन करते हैंघटादीनामपि ब्रह्मत्वान्नित्यतेति वक्त युक्तिमाह-'आविर्भावतिरोभावी शक्ती वै मुरवैरिणः ।। सर्वाकार स्वरूपेण भविष्यामीति या हरेः ॥ वीक्षा यथा यतोयेन तथा प्रादुर्भवत्यणः ।। मृदादि भगवद्रूपं घटाद्याकारसंयुतम ॥ मूलेच्छातस्तथा तस्मिन् प्रादुर्भावो हरेस्तदा ।। तिरोभावस्तथैवस्यात् रूपान्तर विभेदतः ।।"
अर्थात्-बट आदि सब ब्रह्म हैं अतएव नित्य हैं, इसमें युक्ति प्रस्तुत करते हैंभगवान की आविर्भाव और तिरोभाव ये दो शक्तियाँ हैं जिससे वे समस्त आकारों में प्रकट होते हैं, जिस रूप को धारण करने की उन अज' की इच्छा होती है वही रूप धारण कर लेते है। मिट्टी आदि भगवद् रूप घटादि आकारों में अभिव्यक्त होते हैं। उनकी अभिव्यक्ति में हरि को इच्छा ही प्रधान है, तिरोभाव भी उनका दूसरे रूप में हो जाता है ।" (अर्थात् मिट्टो का घड़ा टूटकर पुनःकिमी अन्य रूप में प्रादुभूति हो जाता है ।)
(६) अविकृत परिणामवाद :--स्वर्ग से जैसे अनेक आभूषण बनाये जा सकते हैं, और सभी को स्वर्ण कहा जा सकता हैं । ये मभी स्वर्ण के ही विभिन्न नाम एवं रूप हैं । अपने आपमें कोई भी अलग पदार्थ नहीं कहलाता, आभूषणों को गला दिया जावे तो उनका प्रकट नाम रूप पुनः स्वर्ण में अन्तर्हित हो जाना . है, हमें केवल स्वर्ण की ही उपलब्धि रह जाती है, उसी प्रकार अनेक नाम रूपों के भेद के होते हुए भी जगत मूलत ब्रह्म का ही परिणाम है, वह दूध से होने वाले दही की तरह विकृत परिणाम नहीं है वह तो स्वर्ण से अविकृत परिणाम है। जगत अपनी सभी अवस्थाओं में ब्रह्म है जैसे कि स्वर्ण हर रूप में शुवर्ण ही है। . "इदं सर्वयदयमात्मा" (वृ० २।४।६)
"सहैतावानास" (वृ० ११४।३)
"यद्भूर्तयच्च भव्यं" (ऋ० मं० १०६।२) इत्यादि श्रुतियां यही बतला रही हैं । आचार्य कहते हैं कि "आत्मकृतेः तदात्मानं स्वयमकुरुत इति स्वस्यैव कार्मक भावात्, सुकृतत्ववचनाच्चालौकित्वम्, तथापि ज्ञानार्थमुपपत्तिमाह, परिणामात्, परिणमते कार्यकारणेनि अविकृतमेव परिणमते सुवर्नम्" (अणु० भा० १।४।२६) ___ अर्थात्-“तदात्मानं स्वयमकुरुत" इत्यादि में स्वयं में कमकुत्तं भाव वतलाया गया है, यह एक अलौकिक बात है, फिर भी सामान्य ज्ञान के लिए