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( २१ ) बाद भी सत्ता को नहीं छोड़ते। जैसा कि निम्नांकित श्रुति वचनों से स्पष्ट हो जाता है। "सदेव सौम्य इदमग्र आसीत्"
(छांदो० ६।२।२) "सदेव इदमग्र आसीदमेक मेवाद्वितीये"
(छांदो० ६।२।१) "कृतस्तुखलु सौम्येवं स्यात् कथमसतः सज्जायेति" (छांदो० ६।२।२)
अर्थात् हे सौम्य ! यह सब सृष्टि के पूर्व स्त् ही था, एक मात्र यह सत् ही था, जब यह एक अद्वैत सत् ही था तो असत् से सत् की उत्पत्ति कहना कैसे संभव है।
अतएव श्री वल्लभाचार्य कहते हैं--''अवरस्य प्रपञ्चस्य संबन्धात् तैकालिकत्वाद् ब्रह्मत्वम् । “असद्वा इदमग्र आसीत्' इनि श्रुत्या प्रागुत्पत्तेः कार्यस्यासत्त्वं बोध्यते इति चेन्न, अव्याकृतत्वेन धर्मान्तरण तथा व्यपदेशः, कुतः ?" तदात्मानं स्वयमकुरुत 'इतिस्वत्यैव क्रियमाणत्वात्, इदमासीत् पद प्रयोगाच्च"
(अणु० भा० २।१।१६-१७) ___ अर्थात्-अवरप्रपञ्च का ब्रह्म से त्रैकालिक संबंध है अतः उसका ब्रह्मत्वसिद्ध है । "सृष्टि के पूर्व यह असत् था' इस श्रुति से तो सृष्टि के पूर्व कार्य का असत्व निश्चित होता है ऐसा कहना सुसंगत नहीं है, वस्तुतः यह जगत अव्याकृत है, इसी विशेषता को उक्त श्रति बतला रही है, "उसने स्वयं को प्रकट किया" इत्यादि श्रुति में ब्रह्म की स्वयं क्रियमाणता कही गई "यह था" इस पद के स्पष्ट प्रयोग से भी हमारे कथन की पुष्टि होती है।
(५) आविर्भावतिरोभाववाद-जगत् के उत्पत्ति के पूर्व एवं नष्ट होने के बाद जागतिक वस्तुओं का सत्ता से संबंध ता टूटसा प्रतीत होता है जो कि हमारी भ्रान्ति है, वस्तुतः तो जगत में उत्पत्ति या नाश है ही नहीं, वह था भी और रहेग। भी, वह आविर्भूत या तिरोभूत या अभिव्यक्त एवं अनभिव्यक्त हो सकता है, जगत के सभी पदार्थ अपने आप में द्रव्य या तत्त्व नहीं है, किन्तु मूलतत्त्व सत के अभिव्यक्त एवं अनभिव्यक्त विभिन्न नाम एवं रूप हैं।
"तदैवेदं तीव्याकृतमामीतनामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतासौ नामायमिदं रूपमिति" ( वृह० ११४७ ) इत्यादि श्रति उक्त कथन का ही समर्थन कर रही है।