________________
( १६ )
वैदिक है, वेद प्रतिपादित तत्त्व साधारण शाब्द बोध से संभव नहीं है । स्वयं उपनिषद् का भी ऐसा स्पष्ट मत है
(अ) 'आसीनो दूरं व्रजति शयानों याति सर्वतः ।
,
कस्तं महामदं देव, मदन्योज्ञातुमर्हति ॥ "
(आ) “भदेकमव्यक्तमनन्तरूपम् "
( कठ० २।२१)
( भ० ना० ११५ )
(इ) "अनन्यप्रोक्त े गतिरत्र नास्ति अणीयान् ह्यतर्कम प्रमाणात् "
( कठ० १४२२८) (ई) "नैववाचा न मनसा प्राप्तं शक्यो न चक्षुषा अस्तीति ब्रुवता अन्यत्रकथं तदुपलभ्यते" (कठ० २|३|१२) अतएव श्री वल्लभाचार्य जी कहते हैं कि - " न हि स्वबुद्धया वेदार्थ परिकल्प्य तदर्थ' विचारः कत्तु शक्यः ब्रह्म पुनः यादृशं वेदान्तेष्ववगतम् तादृशमेव मन्तव्यम् अणुमात्रान्यथाकल्पनेऽपि दोषः स्मात् ।
नच विरुद्ध वाक्यानां श्रवणात् तन्निर्धारार्थं विचारः उभयोरपि प्रामाणिकत्वे नैकतरनिर्धारस्या शक्यत्वात्, अचिन्त्यानन्तशक्तिमति सर्वभवन समर्थे ब्रह्मणि विरोधाभावाच्च', ( अणु० भा० १|१|१)
अर्थात् अपनी बुद्धि से वेदार्थ की परिकल्पना करके वैदिक तत्त्व का विचार संभव नहीं है, वेदान्तों से जैसे ब्रह्म स्वरूप की अवगति होती है वैसा ही मानना चाहिए, अणुमात्र भी उसके विपरीत कल्पना करना दोष है ।
विरुद्ध वाक्यों के अनुसार स्वरूप निर्धारण करना दोनों ही प्रकार वाक्य प्रमाणिक हैं अतः किसी एक के अनुसार तत्त्व का निर्धारण शक्य नहीं है, अचिन्त्य अनन्त - शक्तिमान, सब कुछ होने में समर्थ ब्रह्म में विरोघात्मक प्रवृत्तियों का होना संभव है ।"
" कत्तू त्वमकृतत्त्वञ्च वेदे प्रतीयते "यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते स आत्मानं स्वयम कुरुत - निष्कलं, निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनं असङ्गा ह्ययंपुरुष :" इत्येवमादिषु तत्र द्वधा निर्णयः संभवति सर्वभवन समर्थत्वाद्, विरुद्धधर्माश्रयत्वेन् अन्यतर बाधाद् वा " ( अणु० भा० १1१1४ )
अर्थात् ब्रह्म का कत्तूत्व अकत्तृत्व वेद के इन वाक्यों से निश्चित होता है— " जिससे सब भूत हुए वह स्वयं जगतरूप हुआ, वह अखण्ड, निष्क्रिय, शान्त,