________________
( १८ )
ब्रह्मवाद की पोषक श्रुतियां ये है
( अ ) " यतो वा इमानि भूतानिजायन्ते येन जातानि जोवन्ति यत् प्रयत्यभिसंविशंति” ( तै. उ. ३१)
(आ) " ब्रह्ममात्रमिदं सर्व ब्रह्मणोऽन्यन्न किंचन्”
(a. fa. 3133)
(इ) " य ईशे अस्य जगतो नित्यमेव, नान्यो हेतुः विद्यते ईशनाय " ( श्वेता. ३|१७ )
(ई) " ब्रह्म हवा इदमग्र आसीत् "
( उ ) " द्यावापृथिवी जनयन्देव एकः " (ऊ) "सर्व खाल्विदं ब्रह्म"
( छां. ३ | १४|१)
(ए) "एक मेवाद्वितीयं तदेक्षत् बहुस्यां प्रजायेय"
(मैत्रा. ६ (१०)
( महाना. २१२ )
(शां. ६ारा३ )
इन श्रुतियों पर विचार करते हुए श्री बल्लभाचार्य जी कहते हैं कि"आदि मध्यावसानेषु शुद्ध ब्रह्मण एवोपादानात् सर्वेषां वेदान्तानां ब्रह्मण्येव समन्वय उचितः " ( अणु. भा. १1१1१ )
अर्थात् - " सृष्टि के आदि मध्य और अवसान में शुद्ध ब्रह्म ही की उपादानता श्रुतियों से परिज्ञात है अतः श्रुतियों का समन्वय ब्रह्म में करना उचित ही है ।"
(२) विरुद्ध धर्माश्रयताबाद
शास्त्रों में जैसा ब्रह्म का निरूपण किया गया हो, वैसा का वैसा ही स्वीकारना न्याय्य है, परस्पर विरुद्ध विधानों द्वारा दो या अधिक विरोधी धर्मों का ब्रह्म के संबन्ध में विधान मिलने पर ब्रह्म को विरुद्ध धर्मो का आश्रय मानना ही उचित है । उपनिषद जिस प्रकार के ब्रह्म के प्रतिपादन में प्रवृत्त हैं वह तर्कातीत है । आचार्य कहते हैं कि
"लौकिकं हि लोकयुक्तयावगम्यते ब्रह्म तु वैदिकं, वेदप्रतिपादितार्थबोधो न शब्द साधारण विद्यया भवति " ( शा० नि० ६२)
अर्थात् लौकिक वस्तु की प्रतीति लोक युक्ति से होती है किन्तु ब्रह्म तत्त्व