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आदि कल्पनायें करनी पड़ती हैं । आचार्य जी के मत से ब्रह्म स्वयं स्वरूपतः जगदाकार में परिणित होता है । वे कहते हैं — " तद् ब्रह्म व समवायि कारणं . समन्वयात् सम्यगनुवृत्तत्वात अस्तिभाति प्रियत्वेन सच्चिदानन्द रूपेणान्वयात् नामरूपोकार्यरूपत्वात् प्रकृतेरपि स्वमते तदंशत्वत्, अज्ञानात् परिच्छेदायित्वे ज्ञानेन बाधदर्शनात्, नानात्वं त्वैच्छिकमेव, जडजीवान्तर्यामिष्वेकैकांशप्राकट यात्........... न च साधारण्येन् र्सवजगत प्रति परमाण्वादीनामन्वय सभवति, एकस्मिन्ननुस्यूतें सभवत्यनेक कल्पनाया अन्याय्यत्वात........तस्माद् ब्रह्मव एव समवायित्व ............. एतत्सवं श्रुतिरेवाह "स आत्मानं स्वयम कुरुत" इति निभितत्वं तु स्पष्टमेव सर्ववादिसम्मतम " ( अण ० भा० १|१1३ )
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अर्थात् - वह ब्रह्म ही जगत का समवायि कारण है, श्रुतियों के समन्वित सारांश से ऐसा ही निश्चित होता है, सच्चितानन्द रूप वही समस्त विश्व में अस्ति, भाति, प्रिय रूप से व्याप्त है, कार्यं रूप नामरूपात्मक जगत् वही है, प्रकृति उनका अंश मात्र है, अज्ञानवश ही भगवद्रूप जगत् में भिन्नता की प्रतोति होती है, ज्ञान से उस भिन्नता का बोध हो जाता है, भिन्न नामरूपों में प्रकट होना ब्रह्म का एक-एक अंश अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहता है । जगत में परमाणु आदि का समन्वय सम्भव नहीं है, अणुओं को एकत्रीकरण होकर भिन्न-भिन्न रूपों में होना काल्पनिक हास्यास्पद है । इसलिए ब्रह्म ही समवायिकरण है 'उसने स्वयं अपने को जगत रूप किया' ऐसा श्रुति का स्पष्ट वचन भी है। ब्रह्म को निमित्त कारण तो सभी मानते हैं ।
अतः स्वेतरवस्तु निरपेक्ष ब्रह्म को जड़ जीवात्मक जगत् को अभिन्न निमित्तोपादान कारण मानना ही ब्रह्मवाद का स्पष्टतम लक्षण आचार्य जी बतलाते हैं—
'आत्मैव तदिदं सर्वं सृज्यते सृजति प्रभुः । त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ॥ आत्मैव तदितं सर्वं ब्रवं तदिदं तथा । इति श्रुत्यर्थमादाय साध्यं सर्वेर्यथामति । अयमेव ब्रह्मवाद - शिष्टं मोहाय कल्पितम् ॥ "
(सर्व निर्णय निबन्ध श्लो० १८३८४ )