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वास्तविकता तो यह है कि वे 'सत्य के भी सत्य' होते हुये भी भावानुसारी हो जाते हैं। यथार्थ का, भावानुसरण मिथ्या या काल्पनिक नहीं अपितु वास्तविक ही होता है । 'यद्भद्धियात उरुगाय विभावयन्ति तत्तद् वपुः प्रणय से सदनुग्रहाय" (भा० ३।९।११) अथात्- हम बुद्धि से जैसे तुम्हारा विभावन करते हैं, वैसा तुम्हारा वास्तविक वपु स्वरूप होता है। यही 'ब्रह्म की रसरूपता है, जो कि आनन्द की चरम सीमा परिणित है।" (सो वै सः"(त० उ० २०११)
श्री वल्लाभाचार्य के शुद्धादत की वास्तविक ब्याख्या इसी आनन्दाद्वैत के आधार पर हो सकती है । आनन्द ब्रह्म है, हम अनन्द है । आनन्द से ही मारी सृष्टि होती है, आनन्द मैं ही लीन होती है। 'आनन्दादह्येव खलु इमानिभूतानि जायन्ते" इत्यादि (ते० उ० - ३।६)
अद्वत को इस विधा तक पहुंचने के लिए जिन दार्शनिक धारणाओं को श्री वल्लभाचार्य उपकरण बनाते हैं या उपयोग में लाते है उनमें से कुछ धारणायें इस तरह हैं :
(१) ब्रह्मवाद (२) विरुद्ध धर्माश्रयतावाद (३) सत्कारणवाद (४) सत्कार्यवाद (५) आविभा वतिरोभाववाद (६) आवकृत परिणा वाद (७) काय कारणतादात्स्य वाद
(१) ब्रह्मवाद का तात्पर्य है कि जगत की उत्पत्ति स्थिति एवं प्रलय मैं, ब्रह्म के अतिरिक्त किसी भी अन्य तत्व को माध्यम न मानना । इसे अन्य शब्द मैं ब्रह्म की 'अभिन्न निमित्तो पादानता" भी कह सकते हैं। जगत के लिए अपेक्षित उपादान समवायी तधा निमित्त कारण ब्रह्म ही है। अन्य ईश्वरवादी नैय्यायिक आदि, निमित्त कारण तो मानते हैं मगर उपादान कारण नहीं मानते। कुछ वेदान्ती अपने-अपने ढंग से ब्रह्म को उपादान का कारण तो मानते हैं, उनके मत में ब्रह्म,अपने अतिरिक्त अन्य किसी भी तत्व की अपेज्ञा रक्खे बिना उपादान कारण नहीं बन सकता अतएव उन्हें विर्तीपादान, प्रकारोपादान, धमों पादान