________________
( १४ )
उसका 'प्रधान - मल्ल निवर्हण न्याय' के अनुसार अर्थ लेना चाहिए हमने भी माया तथा ब्रह्म के संदर्भ में ऐसी व्याख्या प्रस्तुत की है, प्रतीत होता है कि 'शुद्ध' पद काव्यावर्त्य केवल माया ही है । श्रीवल्लभाचार्य का ऐसा अभिप्राय नहीं होगा, 'शुद्ध' पद से उनका जो अभिप्राय है वह उनकी निम्न पंक्ति में स्पष्ट है- "अयं प्रपञ्च न प्राकृतः, नापि परमाणु जन्न्यः नापि विवर्त्तात्मा, नापि अदृष्टादि द्वारा जातः, नाप्यसतः, सत्तारूपः किन्तु भगवत्कार्यः परमकाष्ठापन्नवस्तुकृतिसाध्यः तादृशमेऽपि भगवद्रूपः, अन्यथा असतः सप्तास्यात् सा चाग्रे वैनामिक प्रकिया निराकरणे निराकरिष्यते वैदिकस्त्वेत्भवानेव सिद्धान्तः (शास्त्रार्थ प्रकरण निबन्ध २३ )
अर्थात् प्रकृति परमाणु माया अदृष्ट आदि किसी भी द्वितीय सहायक तत्त्व की अपेक्षा बिना स्वयं केवल शुद्ध ब्रह्म का ही जड़जीवात्मक जगत के साथ अभेद सिद्धान्त वैदिक है, अथवा प्रकृति परमाणु, माया अदृष्ट आदि के द्वत से रहित ब्रह्म है | अतएव 'शुद्ध' पद की वास्तविक व्याख्या होनी चाहिए " प्रकृति परमाणु मायादृष्टादि रहितं शुद्ध मित्युच्यते बुधैः "
कुछ लोग 'शुद्धाद्वैत' अभिधान श्री वल्लभाचार्य कृत नहीं मानते, किन्तु यह प्रान्त धारणा है, उपर्युक्त परिभाषित अर्थ में शुद्धाद्वैत शब्द का प्रयोग सुबोधिनी में आचार्य चरण द्वारा किया गया है - " भेदनाशकन्तु भगवद्विज्ञानं " माक्षात्कारे......शुद्धाद्वतञ्च स्फुरति " ( सु० १०।२।३५ ) इत्यादि ।
जगत के विभिन्न नामों एवं विभिन्न रूपों के अद्व ेत की सत्ता के रूप में ही अद्वैतवाद की व्याख्या संभव है । नैय्यायिक भी सत्ता को 'पर सामान्य' कहते हैं, अन्तर केवल इतना ही है कि नैय्यायिकों की दृष्टि में 'सत्ता' द्रव्य गुण एवं कर्म में समान रूप में रहने वाला एक धर्म है । वस्तुतः बात तो वह है कि मत्ता के आधार पर वस्तु को सत् मानने की प्रक्रिया में सत्ता में तो सत्ता होती नहीं इसलिए वह स्वयं अमत् न हो जाये इसको ध्यान रखते हुए सत्ता को धर्म मानने के बजाय मूलद्रव्य या तत्व मानना ही अधिक सुसंगत है । सत्ता एवं सत् में व्याकरण शास्त्रीय भेद है मगर दार्शनिक भेद नहीं । इस मूल तत्त्व सत् के ही विभिन्न रूप जागतिक पदार्थ हैं, सच्चिन के विभिन्न रूप जीव या चेतनायें हैं । सच्चिदानन्द स्वयं मूलतत्त्व का मौलिक रूप है, वस्तुतः आनन्द ही मूलतत्त्व है, आनन्द के प्रत्यय में 'सत्' एवं 'चित्' अन्तहित हैं । अतएव कहा गया 'आनन्दो ब्रह्म ेति व्यजानात् ' ( तै० उ० ३।६)