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( १३ ) "(३) "एतद्धि सर्वाणि नामानि रूपाणिवित्ति" (छः १।६।१) वही इन सारे नामों एवं रूपों को धारण करता है । ___ श्री वल्लभाचार्य जी इन वचनों से समस्त ब्रह्माण्ड को ब्रह्म रूपता निश्चित कर अद्वैतवाद का निर्णय करते हैं और उसे ही शुद्ध (सही) बतलाते हैं । ब्रह्म स्वभावतः एक है मगर अपने विलक्षण सामर्थ्य और इच्छा के बलपर अनेक भी हो सकता है । एक से अनेक होने में यदि कोई तार्किक विसंगत है तो आचार्य उसे दुर्भाग्य मानते हैं वह तर्क यथार्थ को अभिव्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ है । वे तर्कभीरु होकर ब्रह्म और माया का द्वत स्वीकार ने को तैयार नहीं हैं। इस दृश्यमान जगत की व्याख्या ब्रह्म के आधार पर करने में असमर्थ होने पर ही ब्रह्म और माया इन दो तत्वों को कल्पना करनी पड़ती हैं, जिसके फलस्वरूप ब्रह्म शुद्ध अद्वैत नहीं रह जाता।
“माया सम्बन्ध रहितं शुद्धमित्युच्यते बुधैः" (शुद्धाद्वैतमार्तण्ड २८) माया सम्बन्ध रहित ब्रह्म को ही आचार्य शुद्ध मानते हैं। केवल ब्रह्माश्रित अद्वत की कल्पना तक पहुँचने के लिए वे ब्रह्म और माया को भी अद्वैत मानते हैं । उनकी दृष्टि से माया केवल ब्रह्म का एक असाधारण सामर्थ्य है, भिन्न कोई वस्तु नहीं है। समर्थ्य से ही ब्रह्म एक से अनेक होता है । व्यापक होते हुए भी परमाणु हो सकता है, देश कालातीत होते हुए भी, देश एवं काल में अपने को अभिब्यक्त कर सकता है। वह अनेक विरोधी धर्मों को अपने में आश्रित कर सकता है। वह सकल विरुद्ध धर्माश्रय अचिन्त्य अघटित घटना पदु है इसलिए बन सकता है यह कहना भी गलत है। उस अचिन्त्य में अनेक अलौकिक धम हैं, जिसमें से कुछ को हम उन्हीं के वचन वेदों से जान पाते हैं, सर्वभवन सामर्थ्य उनमें से एक है। _श्री शंकराचार्य माया की धारणा द्वारा जिन-जिन समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करते हैं, वल्लभाचार्य जो उनको ब्रह्म के विशिष्ट स्वरूप या सामर्थ्य के आधार पर ही सुलझा देते हैं । वे कहते हैं-"विरुद्ध धर्माश्रयत्वं तु ब्रह्मणो भूषणाय न तु मायायाः"
यहाँ प्रश्न मूलतः कल्पनावादी और यथार्थवादी अद्वत का है शुद्धाद्वैत यथार्थवादी है, शुद्धाद्वैत के पद पर आरूढ़ होने के लिए ब्रह्म को सच्चिदानन्द के प्रतिपादक उपनिषद् वाक्यों का सहारा है। यहाँ यह लक्ष्य में रखना चाहिए कि 'शुद्धाद्वैत मार्तण्डकार' ने 'शुद्ध' पद से व्याव| माया को जो बनाया है