Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 12
________________ ( ११ ) (५) इसी प्रकार ब्रह्म को इस जड़ चेतनात्मक जगत का आधार भी माना गया है, इसकी भी कई प्रकार की व्याख्यायें सम्भव हैं । जैसे कि आत्मा देह का आधार है, अर्थात् आत्मा के बिना देह कुछ भी करने में समर्थ नहीं है । टेबल, पुस्तक का आधार है अर्थात् पुस्तक टेबल पर रक्खी है । व्यक्ति अपने गुणधर्म का आधार है अर्थात् व्यक्ति के बिना गुण धर्म आदि का स्वरूप निरूपण सम्भव नहीं है । अवयव अवयवी आधार हैं अर्थात् अवयवों के संयोग से ही अवयवी का अस्तित्व है । रस्सी में सर्प को भ्रान्ति में रस्सी ही उस झूठे सर्प का आधार मानी जाती हैं । इन उदाहरणों के अतिरिक्त जड़ में प्रतीयमान सत्ता मूलतः ब्रह्म की ही सत्ता है, जीव में प्रतीयमान चेतना मूलतः ब्रह्म की ही चेतना है, इस प्रकार भी ब्रह्म को दोनों का आधार माना गया है । इनमें कुछ प्रकार द्व ेत घटित कुछ अद्वैत घटित है । (६) बिना किसी भी प्रकार के संबंध को माने निरपेक्ष रूप में जड़ चेतन एवं ब्रह्म के स्वरूप के निरूपणार्थं भी उपनिषद् के कई वचन प्रवृत्त होते हैं, जिन्हें, तद्वतवादी यथा योग्य अपने अनुकूल अर्थों में विनियुक्त करने की चेष्टा में रत रहते हैं । इनके अतिरिक्त भी अन्तर्यामी, लोकातीत, या साक्षी आदि कई रूपों में जगत ब्रह्म के संबंधों का निरूपण मिलता है । जैसा कि हमने ऊपर इन सभी प्रकार के वचनों को संगति, इनमें सुखवाद या एकार्थता स्थापित करना ही सभी वेदांतियों एवं शुद्धाद्वैत का भी प्रमुख लक्ष्य है । इन सभी प्रकार के वचनों की एक वाक्यता के लिए जो कुछ मूल भूत धारणायें शुद्वाद्वत में प्रस्तुत की गई हैं उन्हें हमें स्पष्टतया समझना चाहिए। विचार किया कि उपनिषद् वाक्य सामान्य रूप से केवल द्व ेत या केबल अद्वैत का प्रतिपादन नहीं करते, किसी रूप में द्व ेत, किसी रूप में अद्वैत दोनों तरह के प्रतिपादन उपलब्ध होते हैं । अनुभव एवं विचार से भी हमें किसी एक के आश्रय से छुटकारा नहीं मिल सकता । विभिन्न रंगों की गाय हैं तो गाय ही अतः उनका अद्वैतभाव स्वभावतः सिद्ध है, पर जिसे श्यामगी अभिप्रेत हैं उसकी दृष्टि स्वाभाविक है । इसी प्रकार जिसे स्वर्ण चाहिए उसे चाहे वह किसी आकार में मिले वह लेगा, किन्तु यदि वह आकार विशेष कंगन आदि की कांक्षा करता है तो वह उसे ही प्राप्त करेगा, ये दोनों कांक्षायें स्वाभाविक हैं । यदि कहें कि द्वैत रूपगत है, अद्व ेत पदार्थंगत है, यह निर्णय विवादास्पद ही होगा

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