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( ६ ) उपनिषदों में विचारार्थ प्रस्तुत द्वैत या अद्वैत वचनों को यहाँ उपस्थित करना सम्भव नहीं है, उनके वर्गीकृत तात्पर्य का कुछ भाग उपस्थित किया जा सकता है, वह वर्गीकरण पूर्ण नहीं, दिसासूचक हो सकता है। सर्व प्रथम हमें द्वैत अद्वैत का सुपरिभाषित अर्थ समझना चाहिए। तभी हम उनके समर्थक या विपरीत वचनों का तात्पर्य सरलता से ग्रहण कर सकेंगे।
द्वत शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'द्विधा इतं (ज्ञातं) द्वीतं तस्य भावो द्वतं' है अर्थात किन्हीं दो या अधिक वस्तुओं के बारे में 'यह एक वस्तु है यह दूसरी वस्तु है' ऐसे बोध को द्वैत कहते हैं, ऐसी किसी हेतु का न होना अद्वैत है। __किन वस्तुओं के द्वैत की चर्चा वेदान्त में की गई इस पर विचारने पर शुद्ध द्वैतवादी मध्वाचार्य जी का विचार सामने आता है वे पाँच प्रकार से द्वैत का विचार प्रस्तुत करते हैं।
(१) एक जड़ वस्तु का दूसरी जड़ वस्तु से भेद (२) एक जीव (चेतन) का दूसरे जीव से भेद (३) जड़ वस्तुओं का जीवों से भेद (४) जड़ वस्तुओं का ईश्वर से भेद (५) जीवों का ईश्वर से भेद
अद्वत, द्वैत का विपरीत भाव है, स्वाभाविक रूप में तो उपर्युक्त पांचों भेदों का निषेध अद्वैत में होगा। किसी एक दो को स्वीकारने पर भी अद्वैत चरितार्थ हो सकता है। अन्य प्रकार से भी द्वैत पर विचार किया गया है:
(१) सजातीय भेद (दो गायों के बीच का भेद) (२) विजातीय भेद (गाय और घोड़े का भेद) (३) स्वगत भेद (एक ही गाय में सींग पूछ)
इन तीनों का निषेध अद्वैत से हो जाता है "सजातीय विजातीय स्वगत भेद वजितम।"
प्रश्न होता है कि जड़-चेतन एवं ईश्वर में परस्पर सजातीय भेद है या विजातीय, इसमें स्वगत भेद है अथवा ब्रह्म में किसी प्रकार की भेद है ही