________________
नहीं ? इन प्रश्नों का उत्तर तभी सम्भव है 'जब कि-उपनिपद वाक्यों का किसी एक अर्थ में ही तात्पर्य निर्धारित किया जाय । अन्यथा सम्भव नहीं है ।
जड़ या ईश्वर में परस्पर द्वैत है या अद्वैत इसके निर्णय में कई प्रकार के उपनिषद् वाक्यों का विचार कर सकते हैं
(१) जड़ चेतनात्मक जगत के कार्य एवं ब्रह्म के कारण होने का उल्लेख जिन वचनों में आता है उनकी विभिन्न व्याख्याओं का द्वैत अद्वैत सम्बन्ध को आरभ्भवादी, परिणामवादी, विवर्त्तवादी, निमित्त कारणवादी, और अभिन्न निमित्तोपादान कारणवादी व्याख्यायें प्रस्तुत की गई हैं।
(२) उक्त विध जगत और ब्रह्म के बीच व्याप्यव्यापक भाव सम्बन्ध भी दिखलाया जाता है, इसमें द्वैत अद्वैत दोनों हो सकते हैं क्योंकि इस सम्बन्ध में कई आकार माने जा सकते हैं, जैसे कि तादात्म्य के कारण, तदुत्पत्ति के कारण, तत् साहचर्य के कारण व्याप्यव्यापक भाव माना जा सकता है । जहाँ मिट्टी के बने पदार्थ हैं वहाँ मिट्टी है, जहाँ धुआँ है वहाँ अग्नि है । नक्षत्र मण्डल के दो तारे साथ-साथ उदयास्त होते हैं, पति है तो पत्नि निश्चित है, पत्नी है तो पति निश्चित है, अर्थात् बिना पति के कोई पत्नि नहीं कहलाती इनमें परस्पर अन्योन्याश्रयता है, इन सारे उदाहरणों में कहीं दूत है तो कहीं अद्वत इसलिए व्याप्यव्यापक सम्बन्धबोधक उपनिषद् वाक्यों में द्वैत अद्वैत दोनों को सम्भावना बनी रहती है।
(३) जगत को ईश्वर से नियम्य, लीला या इच्छा के अधीन मानने वाले वचन स्पष्टतया द्वत का प्रतिपादन करते हैं जो कि द्वतवादियों के अधिक अनुकूल हैं। अति अद्वैत मानने पर कौन ईश्वर, किसकी नियामकता, कैसी लीला या इच्छा, केसी अधीनता, ? कुछ भी सिद्ध होना सम्भव नहीं है।
(४) उपास्य उपासक का सम्बन्ध भी बुद्धजीव के द्वैत का बोध कराता है, इनके प्रतिपादक वचन भी भेदवादियों के अति अनुकूल है किन्तु उपास्य का अधिक संकुचित अर्थ न लेते हुए, ईश्वर या ब्रह्म को पाने या जानने के सभी ज्ञान, कर्म-भक्ति उपासना, योग आदि साधनों के संदर्भ में ज्ञय, ज्ञातव्य, भजनीय, ध्येय, उपास्य आदि अर्थों का ग्रहण करने पर भक्त, योगी, ज्ञानी, उपासक, साधक आदि के साथ ब्रह्म का सम्बन्ध द्वैत ही हो यह कोई अनिवार्य नहीं है।