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अग्नि लगाइ हो वह जहांपर सागडी रखी हो वहां पर उसका ताप प्रकाश होगा इसी माफीक अवधिज्ञानोत्पन्न हुवा है वहां बेठा हुवा अवधिज्ञान द्वारा संख्याते योजन असंख्याते योजन के क्षेत्र में संबन्धवाले असंबन्धवाले पदार्थों को जान सकेगा परन्तु उस स्थानसे अन्य स्थानपर जाने के बाद कीसी पदार्थ को नही जानेगा. अनानुगामिक अवधिज्ञान का स्वभाव है कि वह दुसरी जगाहा साथये न चाले उत्पन्न क्षेत्रमे ही रहै !
वृद्धमान अवधिज्ञान-प्रशस्ताध्यवसाय विशुद्धलेश्या. अच्छे परिणामवाले मुनि को अवधिज्ञान होने के बाद चो तरफसे वृद्धि होती रहै जैसे जघन्य सूक्ष्म निलण फुलके जीवों के तीसरे समय के शरीर जीतना, उत्कृष्ट संपूर्ण लोकतथा लोक जैसे असंख्यात खंडवे अलोकमें भी जाने. इसपर काल और क्षेत्र कि तूलनाकर बतलाते है कि कीतने क्षेत्र देखने पर वह ज्ञान कीतने काल रह सके। कालसे आवलिकाके असंख्यात भाग तकका ज्ञान हों तो क्षेत्र से आंगुलके असंख्यात में भागका क्षेत्र देखे एवं दोनोंके संख्यातमें भाग. आवलिकामे कुच्छ न्युन हो तो एक आंगुल. पुर्णावलिका हो तो प्रत्येकांगुल. महुर्त हो तो. एक हाथ. एक दिन हो तो एक गाउ. प्रत्येक दिन हो तो एक योजन. एक पक्ष हो तो पचवीस योजन एक मास होतो भरतक्षेत्र, प्रत्येक मास होतो जंबुद्विप, एक वर्ष होतो मनुष्यलोक, प्रत्येक वर्षे होतो रूचकहिप, संख्यातो काल होतो संख्याताद्विप, असंख्यातो काल होतो, संख्याते असंख्याते द्विप तात्पर्य एक कालकि वृद्धि होनेसे क्षेत्र द्रव्य भावकि आवश्य वृद्धि होती है क्षेत्रकि वृद्धि होनेसे कालकि वृद्धि स्यात् हो या नभी हो, और द्रव्य भावकि आवश्य वृद्धि हो, द्रव्यकि वृद्धि होनेमे कालक्षेत्रकि भजना और भावकि अवश्य वृद्धि हो. भावकि वृद्धि होनेमे द्रव्य क्षेत्र कालकि अवश्य वृद्धि होती है. द्रव्य क्षेत्र काल भावमें सूक्षम बादरकि तरतमता, काल बादर है जिनसे सूक्षम