Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
स्मरणशक्ति अद्भुत होने से इस महान् आत्मा को वर्तमान में उपलब्ध समस्त वीरवाणी कण्ठस्थ थी। धवला, जयधवला व महाधवला के सहस्रों प्रकरण मौखिक याद थे। यही नहीं, इन तीनों ग्रन्थों के लगभग २०,००० पृष्ठों में कहाँ क्या उल्लिखित है, यह सब उन्हें स्मरण था। किन्तु घर में जब आपसे पूज्य माताजी ( आपकी धर्मपत्नी ) चाकू आदि के लिये पूछती कि "कहाँ पड़ा है ?" तो आपको ज्ञात नहीं होने से नकारात्मक ही उत्तर देते । घर की कौनसी वस्तु कहाँ पड़ी है, इसका आपको स्मरण नहीं था, मात्र जिनवाणी का स्मरण था।
एक दिन मैंने आपसे पूछा कि "आप भव्य हैं या अभव्य ?" तो उत्तर मिला कि “मैं भव्य हूँ, मुझे आत्मा का सच्चा श्रद्धान है;" ऐसा सहज स्वभाव से कह दिया । धन्य हो ऐसे सम्यक्त्वी, देशसंयमी, सहजस्वभावी एवं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी व्यक्तित्व को। सिद्धान्तशास्त्रों में शुद्धिपत्रों के निर्माता
करणानुयोग से सम्बद्ध किसी भी ग्रन्थ की टीका में किसी भी विद्वान् ने जिस किसी भी प्रकार की सहायता ( संशोधन आदि सम्बन्धी ) हेतु निवेदन किया तो उन्हें आपने समुचित सहयोग प्रदान किया। धवला, जयधवला व महाबन्ध (महाधवल) की सैकड़ों अशुद्धियों का आपने संशोधन करके इनके शुद्धिपत्र बनाकर विद्वानों को भेजे। मुख्तारदर्शित ये संशोधन ( शुद्धिपत्र ) ग्रन्थों के प्रारम्भ में विद्वानों द्वारा ज्यों के त्यों रख दिये गये।' धवलादि के अध्ययन के समय मुझे विदित हुआ कि इस पूज्यात्मा ने ये अशुद्धियाँ कैसे निकाली होंगी। अध्ययन के दौरान इन अशुद्धियों की ओर हमारा तो मस्तिष्क ही नहीं पहुँचता था। धन्य हो इस महान् पावन आत्मा को, जिसने शास्त्रों के गूढ़ अध्ययन में अपना सम्पूर्ण जीवन ही न्योछावर कर दिया।
स्व० पूज्य गुरुवर्यश्री की धवलत्रय सम्बन्धी अशुद्धियों को पकड़ने की अद्भुत क्षमता से सम्बद्ध दो घटनाएँ मैं नीचे लिखता हूँ :
१. महाबन्ध पुस्तक ३ में अनेक अशुद्धियाँ थीं। गुरुजी ने महाबन्ध के सम्पादक-अनुवादक पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री को शुद्धिपत्र बनाकर भेजा। तब पं० फूलचन्द्रजी का पत्र आया कि "मुख्तार सा० ! आपके पास महाबन्ध की दूसरी प्रति है; जिससे कि मिलान कर आपने ये अशुद्धियाँ ज्ञात की हैं।" उत्तर में गुरुजी ने लिखा कि, "स्वाध्याय करते समय इसी पुस्तक से ये अशुद्धियाँ ज्ञात हुई हैं।" तब उनका पुनः पत्र आया कि "रतनचन्दजी! आप किस प्रकार से स्वाध्याय करते हो जिससे कि ऐसी सूक्ष्म-सूक्ष्म अशुद्धियाँ भी ज्ञात हो जाती हैं।" इसके उत्तर में गुरुवर्यश्री ने लिखा कि “स्वाध्याय करने का वह ढंग पत्र में नहीं लिखा जा सकता; वह तो प्रत्यक्ष में ही बताया जा सकता है।" इस पत्राचार काल के कुछ दिवसों बाद ही दशलक्षण पर्व था। उसमें सहारनपूर की जैन समाज की ओर से प्रेषित निमन्त्रण से पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री दशलक्षण पर्व के दिवसद्वय पूर्व ही वहाँ ( सहारनपुर ) आ पहुँचे। तब फिर गुरुवर्यश्री ने फूलचन्द्रजी को प्रत्यक्ष में बतलाया कि स्वाध्याय किस प्रकार की जाती है। वे कहने लगे कि "इस प्रकार स्वाध्याय करने में तो स्मृति एवं समय की आवश्यकता है।" प्रत्युत्तर में गुरुजी ने कहा कि "ग्रन्थों के प्रकाशित होने से पूर्व पाप प्रेसकापी डाक द्वारा मेरे पास भेज देवें। मैं उसका स्वाध्याय करके, शूद्धिपत्र बनाकर आपको भेज दूंगा। उनमें जो संशोधन प्रापको उचित लगें उन्हें शूद्धिपत्र में रख लेना।" तब से फिर पण्डित फूलचन्द्रजी ने प्रेसकापी भेजनी प्रारम्भ कर दी और पूज्य गुरुवर्यश्री उस प्रेसकापी का सक्ष्म और गहन अध्ययन कर शुद्धिपत्र के साथ प्रेसकापी पुनः पण्डितजी के पास भेज दिया करते थे।
१. एक सूचना के अनुसार पं० जी ने धवला की १६ पुस्तकों का एक नवीन सम्मिलित शुद्धिपत्र और तैयार कर
तत्कालीन सम्पादकों को भेजा था परन्तु अद्यावधि उसका उपयोग देखने में नहीं आया है।-सं० ।
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