Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३
इन दोनों भाषाओं का तो आपको अच्छा ज्ञान था ही, परन्तु जबसे आपने जिनवाणी का स्वाध्याय प्रारम्भ किया तसे आत्मबल से हिन्दी, संस्कृत एवं प्राकृत में भी प्रवेश पा लिया और इस स्वाध्याय के फलस्वरूप बहुत कम समय में ही आप संस्कृत व प्राकृत के जटिल वाक्यों का हिन्दी अर्थ करने में भी दक्ष होगये, यह महान् आश्चर्य था । विद्वज्जगत् की यह पहली विभूति रही है जिसने कि आत्मबल से, बिना गुरु की सहायता के ही हिन्दी, संस्कृत व प्राकृत जैसी भाषाओं का उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त कर लिया था । कभी मैं पूछता " गुरुजी ! आपने इन भाषाओं का ज्ञान कैसे प्राप्त कर लिया ? आपने अध्ययन के समय तो ये भाषाएँ पढ़ी नहीं, फिर इतना गजब का ज्ञान कैसे है ?” तब वे उत्तर देते - "जवाहरलालजी ! यह सब जिनवाणी की सेवा का प्रसाद है । जिनवाणी की सेवा से इस संसार में कोई भी कार्य असम्भव नहीं रहता। ठीक ही कहा है कि- किम् अप्राप्यम् जिनभक्तियुक्ताय ।"
आपने अपने गहन एवं विशाल अध्ययन का प्रारम्भ उमास्वामी - विरचित तत्त्वार्थसूत्र से किया। इसके पश्चात् परीक्षामुख ग्रन्थ का स्वाध्याय किया । फिर गोम्मटसार कर्मकाण्ड व जीवकाण्ड का स्वाध्याय किया । प्रत्येक शास्त्र का अध्ययन आपने बहुत - बहुत विनयपूर्वक किया तथा हर एक ग्रन्थ का अध्ययन तीन बार करके ही आप दूसरा ग्रन्थ प्रारम्भ करते थे प्राप कहते थे कि "जिसमें विनय नहीं है उसने विद्या पढ़कर भी क्या किया"
।
और हमें कहते थे कि देखो भाई
!
नीति तो यही कहती है कि
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विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम् । पात्रत्वाद्धनमाप्नोति, धनाद्धर्मस्ततो जयः ॥
गोम्मटसार जैसे शास्त्र में प्रविष्ट होना करणानुयोग में प्रवेश पा जाना है; आपने उसे पूरा आत्मसात् किया । फिर लब्धिसार-क्षपणासार का अध्ययन किया, अनन्तर धवलादि शास्त्रों का। इस प्रकार चार वर्ष की अल्पावधि में ही आपने चतुरनुयोग के सभी उपलब्ध प्रकाशित शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन कर लिया । यथाप्रथमानुयोग में महापुराण, पाण्डवपुराण, पद्मपुराण, महावीरपुराण, स्वयंभूस्तोत्र, हरिवंशपुराण, जीवन्धरचम्पू आदिका अध्ययन किया ।
चरणानुयोग में रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अमितगतिश्रावकाचार पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, चारित्रसार, प्रचारसार, मूलाचार (उभय), मूलाराधना ( भगवती आराधना ), गुणभद्रश्रावकाचार, सागारधर्मामृत, अनगारधर्मामृत, धर्मामृत, वसुनन्दिश्रावकाचार, मूलाचारप्रदीप, उपासकाध्ययन, रयणसार, प्रवचनसार आदि का अध्ययन किया । ब्रव्यानुयोग में द्रव्यसंग्रह, वृहद्रव्यसंग्रह, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, मोक्षमार्गप्रकाशक आदि का अध्ययन किया ।
करणानुयोग में तत्त्वार्थसूत्र, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, पञ्चसंग्रह, षट्खण्डागम, धवलाटीका, जयधवलाटीका, महाधवल, कसाय पाहुडसुत्त, सिद्धान्तसारसंग्रह, त्रिलोकसार, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, सुखानुबोधटीका, तत्त्वार्थ भाष्य, अर्थप्रकाशिका, तत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थसार, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, गणितसारसंग्रह, लोकविभाग, लब्धिसारक्षपणासार आदि का अध्ययन किया ।
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न्यायविषयक ग्रन्थों में तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, परीक्षामुख, प्राप्तमीमांसा, आप्तपरीक्षा, प्रमेयरत्नमाला, न्यायबिन्दु, न्यायविनिश्चय, आलापपद्धति, वृहद्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र, नयचक्रविभाग, युक्त्यनुशासन, सप्तसंगीतरंगिणी, स्याद्वादमञ्जरी, प्रमेयकमलमार्तण्ड व अष्टसहस्री का अध्ययन किया ।
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