Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
ठीक ही कहा गया है कि "ज्ञानी-ध्यानी व आत्मार्थी जनों का जीवन तो दुःखमय ही होता है" । यात्रा से लौटने के बाद भी आप करीब छह मास तक निरन्तर अस्वस्थ रहे। इससे आपकी मातेश्वरी व भाइयों को निरन्तर चिन्ताएँ बनी रहती थीं। आपके पिता का तो सन् १९१० में ही स्वर्गवास हो चुका था, अतः बाल्यकाल में ही आपको पितृ-सुख से वंचित होना पड़ा। विधवा माँ ही चारों पुत्रों का लालन-पालन करती थी।
उस काल में पूरे जिले में मात्र सहारनपुर में एक स्कूल दसवीं कक्षा तक का था। अतः आपकी पढ़ाई दसवीं कक्षा तक ही हई। कालेज सहारनपुर से काफी दूर मेरठ में था। घर की दुर्बल आर्थिक परिस्थितियों के कारण आप अपना अध्ययन जारी नहीं रख सके। सत्तरह वर्ष की अवस्था में फरवरी १६१६ में आपका विवाह सौ० माला के साथ सम्पन्न हुआ। अठारह वर्ष की अवस्था में हाई स्कूल उत्तीर्ण कर आप व्यापार में लग गये। अपने श्वशुर की दुकान पर रहकर ही लगभग एक वर्ष तक आपने व्यापार का कार्य किया। प्राड्विवाककर्म
व्यापार को त्याग कर आपने अल्पकाल में ही मुख्तार की परीक्षा पास की और वकालत प्रारम्भ की। इसमें आपने आशातीत सफलता प्राप्त की। अल्प समय में ही आप अपने क्षेत्र के अच्छे वकील माने जाने लगे और अतिशीघ्र "रतनचंद मुख्तार" के नाम से आपने प्रसिद्धि पा ली। परन्तु विधि के विधान में तो कुछ और ही था।
त्मा को ऐसे पापकार्यों में कैसे रुचि हो सकती थी। कभी-कभी ऐसे मुकदमे भी आते थे कि उनमें
का अर्थ बदलना पड़ता था और विपरीत अर्थ करके अपराधी को भी जिताना पड़ता था। ऐसे मकदमों में निर्दोष व्यक्ति को महान् आघात पहुँचना स्वाभाविक ही था। उसके लिये मुकदमा हार जाना अत्यन्त दाखास्पद होता था। ऐसी घटनाओं से आपको निरन्तर खटक बनी रहती थी कि "मैं यह क्या कर रहा हैं ? १०००-२००० रुपयों की राशि के लिये मैं अपना और साथ ही दूसरों का भी जीवन बेकार कर रहा हूँ, यह न्याय्यवृत्ति नहीं है।"
_____एक मुकदमे के सम्बन्ध में आपने बताया कि एक स्त्री थी। उसका पुत्र तो कोई अन्य था परन्तु किसी अन्य व्यक्ति ने यह दावा किया कि मैं पुत्र हूँ। इस मुकदमे में उस व्यक्ति के पक्ष में निर्णय होगया जो असली पुत्र नहीं था। असली पुत्र की हार हुई। ऐसी पैरवी करने पर मुकदमा जीतने के बावजूद भी आपकी आत्मा में अपार कष्ट हआ। आपने सोचा कि "लक्ष्मी तो चंचल है, मैं इसके उपार्जन के लिये इतना प्रयत्न करके अन्याय से पापार्जन कर रहा हूँ। इससे मेरा कल्याण नहीं हो सकता; क्योंकि इसमें सन्तसमागम या प्रभु-कथा तो है नहीं। गलत व्यक्ति को जिताना पाप है।" इस प्रकार वकालत के महान् पापों का आपको अनुभव होने लगा। आप बारम्बार विचार करते थे कि
सन्तसमागम प्रभुकथा, तुलसी दुर्लभ दोय ।
सुत, दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय ॥ व्यवसाय त्याग, स्वाध्याय की ओर
परिणामतः २३ वर्ष की सफल वकालत को तिलांजलि देकर आपने स्वाध्याय, चिन्तन-मनन एवं तत्परिणामभूत वैराग्य की ओर अपने कदम बढ़ाये । लेकिन अभी तक आपको धर्मशास्त्रों का ज्ञान बिलकूल नहीं था। आपने मात्र अंग्रेजी व उर्दू ही पढ़ी थी। हिन्दी व संस्कृत भाषा से आप सर्वथा अनभिज्ञ थे। आपने मुझे कई पत्र अंग्रेजी में ही लिखकर भेजे थे। आप कहा करते थे कि "मुझे अंग्रेजी में लिखना सरल पड़ता है; मैं हिन्दी नहीं जानता, मैंने मात्र उर्दू व अंग्रेजी पढ़ी है, अतः इन दोनों भाषाओं का ज्ञान है।"
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