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प्रतिष्ठा
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RAKASHALAUREGA
अब कालकी शुद्धि कहिये हैकालोऽत्र वर्षासमय व्यतीत्य प्रवीतराजोपनृपप्रधानः।
संघाधिपाचार्यमृतिक्षणोऽपि न शस्यते रोगभयार्तिदायी ॥ १८ ॥ कि बर्षा विना सर्व काल सराहने योग्य है। अरु जासमै राजा मंत्री प्रधानका मरण नहीं हवो होय, अरु आचार्य प्रतिष्ठापक का भी मृत्यु नहीं होय, अरु रोग महामारी अर शत्रुभय अरु पीड़ा नहीं होय ॥११८॥
भूकंपदिग्दाहनवैरिचक्रस्वचक्रभीर्यत्र न तस्कराणां।
उपद्रवैर्वाप्यपरैः समेतो यागप्रयोगाय बुधैर्न धार्यः ॥ १६ ॥ बहुरि भूकंप अरु दिशानका दाह अरु परचक्र स्खचक्र की भोति नहीं होय, अरु तस्कर लुटेरेनिका भय नहो होय अथवा अन्य उपद्रवकरि संयुक्त काल है सो प्रतिष्ठा यज्ञके अर्थि नहीं धारिये है ॥ ११६॥
अब भावथुद्धि कहिये हैसमस्तसंघोचितसत्प्रसादात् सद्धर्मवृद्धयुत्सवपूर्णचित्तः।
जनोनुकूलागमवस्तुजातो भावो मनोनंदनजाभिलाषः ॥ २० ॥ कि समस्त संघके प्रसन्नता होय तातें समीचीन धर्म की वृद्धिका उत्सवमें प्रसन्न चित्तयुक्त जन होय अर अनुकूल वस्तुका मागममें वस्तु समूहनै देखने वारा जन अपने मनका आनंद करि अभिलापवान् भाव प्रशस्य होय ॥ १२० ॥
अनेकभव्यप्रणिधानयोगादनेकसाहाय्यवितानसंगात् ।
अनेकविद्वज्जनसंनिधानात् शोभां विधत्ते जिनयज्ञ एषः॥ ___ अर एह जिनयज्ञ अनेक भव्यनिका उपयोगके योगते अर अनेक सहाई जनका होने पर अनेक पंडित जनोंका निकट होने शोभाको धारे है ।। १२१॥
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