Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 269
________________ २६३ अर निश्चय करि पदार्थका संयोगके अंत वियोगभाव प्राप्त होय ही है अरु मूढ़ पाणी तिसमें विद्वेष कर है अर ताका नाशहोते चिंतापतिष्ठा युक्त हुवो संतो नवीन कर्मने बांधै है ॥८६॥ दावप्रदग्धवपुषो विगलद्धितस्य स्फारीभवंति च कपेणकंडुरोगाः । दंतैर्विदारिततनोरिव यद्धृषीकभोगैस्तदायततृषा प्रतिजीवजाता ॥८१०॥ अर जैसें दावानल अग्निकरि दग्ध शरीरवाला अर भूलि गया है हित जानै ऐसा व्रतमें कंडुरोग कि खाजरोग दंतनिकरि विदीर्ण किया है शरीर जानै ऐसा कपिके जसै विस्तरै है तैसें इद्रियनिका भोगकरि ताका प्राप्तिकी वांछा जीवपात्रके विस्तृत होय है ॥२०॥ देवदानवसुधांशुभास्करा इंद्रनागपतियक्षराक्षसाः। भारिशो नवनिधीश्वराः क्षणाद रक्षितं न मरणात प्रभष्णवः ॥११॥ अर देव दानव चंद्र मूर्थं तथा इंद्र धरणेद्र यत राक्षस जे हैं ते नवनिधिके स्वामी चक्रवर्ती आदि जे हैं ते बहुविध समय भी इस माणो |कूपरणत रक्षा करिवेकूसपर्थ नहीं है ॥८११॥ वित्तवीर्यमुकृतव्यपायिनो पुत्रदारसुहदोऽर्थकामुकाः। नाल तस्कृतिमपास्य जंतवः स्थैर्यमाप्नुयुरहनिशं क्षणात् ॥ ८१२॥ अर पुत्र स्त्री मित्र जे हैं ते धन पराक्रम अर पुण्यके नाश करनेवारे हैं पर धनहीके लोलुपी हैं। अर प्राणी हैं ते पुत्र खो भादिका कृत्यनै का छोडिकरि रात्रिदिन क्षणमात्र भी स्थिरताने नहीं पावै हैं॥८१२॥ आहारभीतिमैथुनपरिग्रहग्रहचपेटया विकलाः। कुत्रापि न संस्कृतिचक्र सुदृशात्मानं न पश्यति ॥ १३ ॥ देखिये येह प्राणी सर्वत्र पाहार भय पैथुन परिग्रह येह च्यारि संज्ञारूपी ग्रहनिको चपेटिकाकरि विकल भये संते कहा मो संसार परिभ्रः IMमण चक्रमें सुदृष्टि करि आत्माने नहीं देखे हैं ॥८१३॥ FAREERCHASHARUGSAX%ASINESS S:03PPRECIOESCREEKRISEASEAN Jain Educati o nal For Private & Personal Use Only IFinelibrary.org

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