Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 305
________________ PAC% भों हीं गुरुस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् । ओं ही गुरुस्वरूपनिरूपक जिनेंद्रकू अर्घ। यत्रामृलमनूनमन्यजडतापीडोत्कथाप्रच्युति. यत्र श्रेयसि दीपिकेव सरणिः प्राकाश्यमास्कंदते । विश्वप्रोतमहातिमोहमदिरानिर्भत्सनं सद्गुणा श्लेषावाप्तिरयं जिनवरैर्गीतो वृषोऽस्तु श्रिये ॥ ८९८॥ अर जहां निश्चयकरि मूलसे ही अन्य प्राणीमात्रको पोडाकी कुकथाका अभाव है अर जहां कल्याण मार्गमें दीपकके समान मार्ग प्रकाशमान होय है पर जहां संसार प्राप्त महान् आतिरूप मोहमदिराका ताडन है अर समीचीन गुणप्राप्ति है सो धम मोक्षकी लक्ष्मी अर्थि जिनेंद्रदेवने कबो है॥८६॥ ओं ह्रीं धर्मस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् । ओं ह्रीं धमस्वरूपनिरूपक जिनेंद्र अर्घ देना। शब्दावाच्यमवस्त्वनादिकृतसंकेतेन वस्तुग्रहः केनापि ध्वनिना भवत्यथ स वै संजायते मातृकृत् । सोऽपेक्षासहितो ह्यनेकगुणतस्ता एव तस्मात् स्थितं वस्तु स्यात्पदसंस्कृतं तदुदयन् स्याद्वाद एवार्हतः ॥ ८९६ ॥ अर शब्दकरि नहीं कहनेमें आवै सो अवस्तु है अर्थात् वस्तुमात्र है सो कोई शब्दकरि कहने प्रावै है अर शब्दकरि नहीं कथित होय, सो वस्तु ही नहीं अर ता वस्तुको अनादिकाल संकेत है ताकरि कोई शब्दकरि ग्रहण होय है सो ग्रहण प्रमाता ज्यो प्रयाण करनेवारा ताका ReKLASTHANI 95%EORCEMEDIE SARAN Jain Educa For Private & Personal Use Only jhelibrary.org

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