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प्रतिष्ठा
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अथ प्रशस्तिः । कुंदकुंदाग्रशिष्येण जयसेनेन निर्मितः।
पाठोऽयं सुधियां सम्यक् कर्तव्यायास्तु योगतः ॥ ६२३ ॥ पर प्राचार्य गुरुपरिपाटी कहे हैं-कि मैं कुंद कुद नाम महान् मुनिवरका पट्टधारी शिष्य जयसेन नामकने रचा ऐसा येह पाठ सम्य|| बुद्धिधारीनिके योगसें करने योग्य है ॥२३॥
श्रीदक्षिणे कुंकुणनाम्नि देशे सह्याद्रिणा संगतसीम्नि पते ।
श्रीरत्नभूध्रोपरिदीर्घचैत्यं लालाहराज्ञा विधिनोर्जितं यत् ॥ ९२४ ॥ श्रीमान् दक्षिण दिशामें कुंकुण नाम देशमें सह्याचलकरि समोप सीमावारा पवित्र श्रीरत्रगिरि ऊपरि जिनेंद्र चंद्रप्रभका बड़ा उन्नत 5 चैयालय लाला नाम राजाका बणाया हुआ है ॥२४॥
___ तत्कार्यमुद्दिश्य गुरोरनुज्ञामादाय कोलापुरवासिहर्षात् ।
दिनद्वये संलिखितः प्रतिज्ञापूर्त्यर्थमेवं श्रुतसंविधत्ति ॥ ९२५॥ अर वहां प्रतिष्ठा होनेका उद्देशकरि गुरु जो कुंदकुद स्वामी तिनिको आज्ञा पाय कोल्हापुर नगरमें रहनेवाले राजाका हषते प्रतिज्ञा परिपूर्ति निमित्त इस शास्त्रका रचनेका विधान है ॥२५॥
वसुविंदुरिति प्राहुस्तदादि गुरवो यतः।
जयसेनापराख्यामां तन्नमोऽस्तु हितर्षिणां ॥ ९२६ ॥ उस दिनसे गुरुजन मोकू 'वसुविंदु' अर्थात् वसु जो अष्टकर्म तिनकू विंदु देनेबारा कि छेदन करनेवारा नामयुक्त किया । जयसेन प्राचीन नाम है, यामै हितके वांछक पुरुषनके भ्रम मत होहु ॥२६॥
इति श्रीमत्कुदकुंदपट्टोदयभूधरदिवामणि श्रीजयसेनाचार्यविरचितः प्रतिष्ठासारः संपूर्तिमपीफणत । ऐं ही स्याद्वादनायकाय नमः।
इति श्री कुंदकुद भाचार्यका पट्टरूप उदयाचल पर सूर्य समान वसुविंदु नाम आचार्यकृत प्रतिष्ठापाठकी वनिका संपूर्ण भई ॥ सर्व४|| संघके अथि मंगल होहु।
॥ समाप्त॥
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