Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 307
________________ चतिष्ठा ३०१ ४ ताकू जिनेंद्र लोकालोक भेदमें नरक स्वगं मनुष्य आदिको स्थिति वृत्तांत प्रवृत्तिको आख्यान येह करणानुयोगने प्रकाशकरि स्वयंभू आप वर्णन करतौ भयो । ६०१॥ ओं ह्रीं करणानुयोगवेदप्रकाशकजिनायाघम् । ओं ह्रीं करणानुयोग स्वरूपनिरूपक जिनेंद्रकू अघ । शीलानां संयमानां व्रतसमितिचरित्रादिसाध्वहितानां सागारार्थोक्तकर्मावधृतविरमणस्थूलधर्मक्रियाणां । तत्तत्स्थानोक्तवुद्धयं निजनिजहृदयोद्भूततत्त्वं निरूप्य कर्तव्यत्वोपदेशो यदवधिचरणाख्यानमुक्तं जिनेन ॥ ९०२ ॥ अर शीलसप्तक अर संयम अर व्रत समिति चारित्र आदि साधु पुरुषनिकरि अहित कहिये पूजित आचारनिको अरु श्रावकके अर्थयुक्त जे कर्म तिनिकरि निश्चत है विरागभाव जिनमें ऐसी स्थूल धर्म आचरणक्रियाको तहां तहां स्थानमें उक्त अर बुद्ध जमैं होय तैसें अपना अपना अभिप्रायको रहस्यने प्रगटकरि कर्तव्यताको उपदेश जिसमें होय सो चरणानुयोगवेद जिनेंद्रने कबो है ॥६०२॥ ओं ह्रीं चरणानुयोगवेदप्रकाशकजिनायाघम् । ओं ही चरणानुयोग स्वरूपका निरूपणतत्पर जितेंद्र अर्य। षद्रव्यवत्वरूपाण्यथ नयघटता तत्प्रमाणखरूपं नामस्थापादिकृत्यं तदधिकरणभिसूतत्वं संस्थापनादि । मेयामेयव्यवस्था यदवधिसमिता यत्र षड्भंगवाणी द्रव्याख्यानं निरूप्य प्रथममभिहितं मोक्षमार्ग जिनेन ॥ ९०३॥ अर षट् द्रव्यका निजस्वरूपको अथवा नयनिकी घटना अर प्रमाणकास्वरूप नाम स्थापनादि कार्य सत्संख्याधिकरण भेदरूपतत्त्वको स्थाप 30. Jain Educatio For Private & Personal Use Only rary.org n al

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