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पाठ
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किया होय है, क्यूकि वो प्रमाता अपेक्षा सहित है पर वे अपेक्षा अनेक गुणते उत्पन्न होती है ताते ऐसा स्थित भया कि वस्तु है सो अनेकांतरूप स्यात्पदकरि संस्कारने प्राप्त हवाकू प्रगटकर्ता स्याद्वाद ही अहंतका मत है॥८॥
ओं ह्रीं नमोऽहते भगवते स्याद्वादस्वरूपनिरूपकाय जिनायार्घम् ।
ओं ह्रीं स्याद्वादरूपका निरूपणकर्ता जिनेंद्रकू अर्घ । तीर्थेशां भरतेशिनां हलजुषां नारायणानां ततः
शत्रूणां त्रिपुरद्विषां च महतां सद्भाग्यसंशालिनां । पुण्यापुण्यचरित्रमत्र निहितं पूर्वानुयोगं विदन्
दृष्टांतप्रतिपत्तिदं जिनपतिः प्रारब्धवान् शासनं ।। ६००॥ बहुरि तीर्थंकराको अर चक्रवर्तीनको और वासुदेव बलभद्र प्रतिनारायणनिको अर रुद्र कामदेव आदि समीचीन भाग्यशाली पुण्यवान् महान् पुरुषोंको पुण्य पापको चारित्र जा विषै निरूपण कियो होय सो दृष्टांतमात्र कहनेवारो प्रथमानुयोग है अर जाननेवारो जिनेद्रदेव शासन रच्यो है॥६००॥
ओं हीं प्रथमानुयोगस्वरूपप्ररूपकाय जिनायाघम् ।
प्रों ही प्रथमानुयोगनिरूपक जिनेंद्रके अर्थि अधे। संस्थानायामसंख्यागणितमसुभृतां मार्गणास्थानतज
कर्मोदीर्णोदयादिप्रकथनमधिपो वर्णयामास सम्यक् । लोकालोकोक्तभेदे नरकसुरमनुष्यादिसंस्थित्युदंत.
वृत्ति त्वारख्यानमेतत्करणगमनुयोगं प्रकाश्य स्वयंभूः (?) ॥ ९.१ ॥ अर लोकका संस्थान चौडाई संख्याको गणना है अर प्राणीनिका मागेणा स्थान अर तातें उत्पन्न कर्मका उदय उदीण कथन जामें होय
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