Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 310
________________ प्रतिष्ठा ३०४ Jain Educatio वंगांगांधोलिकोशीन र मलयविदर्भेषु गौडे सुस । शीतांशुरश्मिजालादमृतमित्र समां धर्मपीयूषधारां सिंचन योगाभिरामा परिणमयति च स्वांतशुद्धिं जनानां ॥ १०८ ॥ तथा पंचाल देशमें, केरल देशमें, मोक्षरूपमार्गमें सूर्य समान जिनेंद्र है सो मंद्र देश, चेदि देश, दशार्ण देश, वंग देश, अंग देश, अंध्रदेश, उलिक देश, उसीनर देश, मलय देश, विदर्भ देश में तथा गौड देश, सब देशमें चंद्रमा अपने किरण समूहतें अमृत जैसे समान धर्म रूप अमृतधाराने सींचतो अर मनुष्य निकी योग जो चिंता निरोध ताकरि सुंदर अपना हृदय शुद्धिने परिणमावे है ॥ ६०८ ॥ पुंनाटचौल विषयेऽपि च मौंद्रदेशे सौराष्ट्रमध्यमकलिंदकिरातकादौ । सुयोग्ये सुदेश हिते सुविहृत्य धर्मचक्रेण मोहविजयं कृतवान् जनानां ॥ ६०९ ॥ अर पु'नाट चौल देशमें तथा मोंडू देशमें सौराष्ट्र में मध्यदेशमें कलिंग देश किरात देशमें ऐसे योग्य देश पूजितमें विहारकरि धर्मचक्रकरि मनुष्यनिका मोहका विजयने करतो भयो । २०६ ॥ ह्रीं नमो भगवते विहारावस्थामाप्तायदेशे धर्मोपदेशेनोद्ध जिनायाघम् । तदेव नमस्कार होहु । भगवान विहारावस्था प्राप्तके अर्थि र धर्मका उपदेशकरि उद्धार करते जिनेंद्र के अर्थ अर्घ देना । शुभेह्नि पुनरन्यत्र स्थापयेत्प्रतिमां विभोः । इमं योगनिरोधस्य प्रक्रमं स्थापयेच्छुभं ॥ ६१० ॥ tional ऐ शुभ दिन भगवानकी प्रतिमाकू मंडलमेंसे उठाय और जगै स्थापन करना । यो ही योगनिरोधका क्रमनें शुभ जैसे होय तेस स्थापन करे ॥ ६१० ॥ ह्रीं शुक्र ध्यानविरताय जिनाय पूर्णाम् । द्वितीयशुक्रुध्याननिरत जिनेंद्र के अर्थ पूर्णाधं देना For Private & Personal Use Only पाठ ३०४ brary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316