Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya,
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur
View full book text
________________
प्रतिष्ठा
३०३
ऐसें समवसरण पूजाका निष्ठापन करें।
इत्युक्त्वा पुष्पांजलि समुत्क्षेप्य समवशरणस्याभितो वस्त्रयवनिकां दत्त्वा पूजां समापयेत् ।
ऐस कहि समवसरणके चौतर्फा पुष्पांजलि देपि वस्त्रकी पडदाने देकरि समवसरणको समाप्ति कर । तत्र जिनेंद्रका विचनै किंचित् प्रचालि विहारक्रम दिखाना ।
इच्छाविरहितस्यापि भव्य पुण्योदयेरितः ।
विहारमकरोद्देशानार्यान् धर्मोपदेशयन् ॥ ९०६ ॥
अर सो इंद्र इच्छारहित भी श्रहतके भव्यपुण्यानुसारि बिहार देश देश प्रतिकरि आयें जे भव्य है तिनिने धर्मको उपदेश करावतो भयो ॥ २०६ ॥
सो ही कहैं हैं
Jain Educatiotional
तथाहि
काश्यां काश्मीरदेशे कुरुषु च मगधे कौशले कामरूपे
कच्छे काले कलिंगे जनपदमहिते जांगलांते कुरादौ । किष्किधे मल्लदेशे सुकृतिजनमनस्तोपदे धर्मवृष्टि
कुर्वन् शास्ता जिनेंद्रो विहरति नियतं तं यजेऽहं त्रिकालं ॥ ९०७ ॥
काशी देशमें, काश्मीर देशमें, कुरु देशमें, अर मगधमें, तथा कोशलमें, कामरूप देशमें, कच्छ देशमें, कालदेशमें, कलिंगदेशमें, अर नगर नि करि पूजित कुरुजांगल देशमें, तथा किष्किंध में थर पुण्यवान पुरुषनिका मनहूं तोष देनेवारा मलय देश में वह शास्ता शिक्षा करनेवारो धर्मकरतो विहार करे हैं ताकू निश्चय मैं त्रिकाल पूजू हूं ॥ २०७ ॥ पांचाले केरले वामृतपदमिहिरोमंद्रचेदीदशार्ण
*
For Private & Personal Use Only
पाठ
| ३०३
library.org

Page Navigation
1 ... 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316