Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 303
________________ cietASPERMISSISAMAUGISGAR ओं ही संवरतत्त्वस्वरूपमरूपकजिनायाघम् । ओं ही संवरतत्त्वनिरूपण पर जिनेंद्र अघे। स्वोद्भूतानुभवात्तथा कृततपोवीर्येण तच्छातनाद् __ द्वेधा निर्जरणं विसंयमियमिस्वाम्याश्रयेणास्ति यत् । तद्रूपं समवश्रियां गदितवान् भव्यात्मनां श्रेयसः संप्राप्त्यै स जिनोऽस्तु मे दुरितसंत्रातस्य संच्छित्तये ॥ ८९४ ॥ अर आप कमका अवधिकरि परिपाक होनेते अथवा तपका प्रभावकी शक्तिकरि तिस कर्मको शातन कहिये क्षीणपनो होय ताते निर्जरा B दोय प्रकार है अर्थात सविपाक अर अविपाक भेदतै अर ताका संसारीपात्र तथा संयमी स्वामी है अर ताको स्वरूप समवसरणमें भव्यनिकू द| मोक्षकी प्राप्तिके अर्थि जो कह्यो सो जिन मेरा पापसमूहका छेदन वास्ते होउ ॥८६४॥ - ओं ही निर्जरास्वरूपपरूपक जिनायाघम् । ओं ह्रीं निर्जरास्वरूपनिरूपणसमर्थ जिनेंद्र अर्य। मोहस्यात्यंतनाशात् ज्ञपितिदृशिचिदाच्छादकाशेषलोपात् । । प्रत्यूहस्यापि मूलंकषविनशनादात्मशक्तेः प्रकाशात् । निःसापत्नं ज्वलंती परमशिवसुखास्वादसंवेद्यमाना __ मुक्तिश्रीदिव्यतस्वं विति सकलजनादेयमुक्तं जिनेंद्रैः॥८६५ ॥ अर मोह कर्मका अत्यंत नाशतें अर ज्ञानावरण दर्शनावरणका समस्तपणाकरि लोपः अर अंतरायकमका मूलनाशर्ते आत्मशक्तिको | | प्रकाश भयो तात निःसपन्न स्वभावने जाज्वल्यमान करती अर परम मोक्षसुखका आस्वादकरि जानिवे योग्य ऐसी मुक्तिरूपो श्री हैं सो दिव्य॥ तत्त्व है ऐसा सकल ही मनुष्यनि ग्रहण करन योग्य श्री जिनेंद्रदेवने कह्यो है ॥८ ॥ Jain Educat In For Private & Personal use only Aslimelibrary.org

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