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ओं ही आकाशपदाथस्वरूपभरूपकजिनायाघम् ।
ओं ही आकाश पदाथ स्वरूपपरूपक जिनेंद्रकू अघ वस्तूभृतागुणपरिणमस्यानुभूतेश्च हेतुः
सत्तार्थानां यदुपगमनादेव जातिं विधत्ते । सोऽयं कालो व्यवहरणकार्यानुमेयः क्रियायाः
कर्तृत्वादित्यकथयदिनो मुक्तिलक्ष्मी ददातु ॥ ८६०॥ वस्तु जे पदार्थ तिनमें प्राप्त अगणित परिणमन अर अनुभूति जो वतैना ताका कारण अर सकल पदार्थनिकी सत्ता जाका अंगोकारत हो अपनी जातिने धारण कर है सो यो व्यवहार कालकरि कि घटी प्रहर आदि करि अनुमान करने योग्य काल क्रियाका कर्त्तापणात है ऐसा कहने वाला प्रभु मोकू मोक्षलक्ष्मी देवो ॥८६॥
ओं ही कालपदाथस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम्।
प्रों ह्रीं कालपदार्थखरूपकथक जिनेंद्रकू अघ। कायस्वांतवचःक्रियापरिणतिर्योगः शुभो वाऽशुभ
स्तत्कर्मागमनायनं निजयुजो रागद्विषोरुद्भवात् । ईर्यामार्गभवौषधद्विविधया तत्संविधिं वेदयन्
जीयाच्छीपतिपूज्यपादकमलस्तीर्थंकरः पुण्यगीः ॥ ८६१ ॥ भर काय मन वचनको क्रियाकी परिणति सो योग है सो शुभ अर अशुभरूप दोय प्रकार है सो तिस रूप कमेका प्रागमन करनेवारा रागद्वेष अपना भावानुकूल प्रगट होनेसे होय है। अरु ईर्यापथिक भर सांपरायरूप है ताकी विधिकू वेदन करनेवारा अनेक लक्ष्मीका स्वापोनिकरि पूज्य है चरण कपल जाका ऐसा पवित्र वागायुक्त तीर्थकर जयवंते रहो॥८६॥
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