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भतिष्ठा
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अर येह जोत्रतत्व ज्ञानोपयोगत अभिन्न है, अर निरंतर चैतन्य स्वभावके आधीन है अर आदि अंतकरि रहित है अर चक्रम कहिये भव| परावर्तनका प्रयोग व योगत मुक्ति वा संसारी है अर पर्यायार्थिक नयकारे नर देव अर पशु नारको आदि भेदवाला है अर द्रव्यार्थिकका यथाथपणाकरि निजचिदानंदस्वरूप है सो हो सिद्धि प्राप्त होय है ॥ ५॥
ओं ही जीवतत्त्वस्वरूपनिरूपकाय जिनायाघम् ।
ओं ही जोवतत्वनिरूपक जिनेंद्र अघ। रूपी स्पर्शादिभिरपि गुणैः स्वैः प्रधानैर्निरुक्तः
स्कंधाणुभ्यामनणुविवृत्तिव्याप्तः पुद्गलः स्यात् । कर्माकर्मप्रकृतिनिगडैर्विश्वमापीड्य हेतु
बंधस्येति प्रभवति जिनं जल्पयंतं नमामि ॥ ८८६ ॥ अर अजीवतत्त्व पुद्गल रूपवान है अर स्पर्शादि ने प्रधान गुणकरि विवेचन क्प्राप्त भया है अर स्कंध अगुपणा अर्थात् समुदाय अर वित्ति कहिये गतावरण अणुरूप व्यापारने प्राप्त पुद्गल होय है सो यो पुद्गल कम नोकमको प्रकृतिरूप श्रृंखलानिकरि संसारगत प्राणोन लापीडितकरि बधको हेतु होय है ऐसा कहनेवारा जिनने नमस्कार करू हूँ॥८६॥
ओं ह्रीं पुद्गलतत्त्वखरूपप्ररूपकाय जिनायाघम् ।
ओं ही पुद्गलतत्त्वस्वरूपनिरूपक जिनेंद्रकू अर्थ। लोकस्थानां भवति गमने जीवसत्पुद्गलानां
हेतुर्धर्मः सहचरविधौदास्यमालप्रमेयः । लोकालोकस्थितिविभजनेऽग्रीण एवं धर्म (?)
.. स्वास्मानं संगदति जिनपः सो स्तु मे क्लेशहर्ता ॥८८७॥
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