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प्रतिष्ठा
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पर जो लोकस्थित जीव पुद्गलनिक गमनमें उदासीन कारण है अर लोककी स्थितिकी सीमा अग्रगण्य होय है ऐसा घपका खरूपने कहै है सो जिनराज लशको हर्ता हमारे होह ॥८८७॥
ओं ह्रीं धर्मतत्त्वस्वरूपनिरूपकाय जिनाया।
प्रों ह्रीं धमतत्त्वका निरूपक जिनेंद्रके अर्थि अर्घ। वैलक्षण्यं तत उपगतो जीवसत्पुद्गलानां
स्थाता धर्मः सहचरतयौदास्यमानेऽपि तेषाम् । एवं तस्य स्वभवनमसंदिह्यमानो जिनेंद्रो
___ मादृक्षाणां भवविधिहतिं संकरोत्वात्मनीनां ॥ ८८८॥ अर जात विलक्षण अर्थात् जोव पदगलनिकी स्थिति करनेवारो स्थानको हेतु सहचर उदासोन शील अधर्म है ऐसे ताका होनेमैं निसंदेह करतो जिनेंद्रदेव हम सारिखे पाणीनिकू आत्माके अथि हित ऐसी संसार वासनाकी हतिन भले प्रकार करौ॥ ८॥
ओं ह्रीं अधर्मपदार्थस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् ।
नों ही अधर्मतत्त्वस्वरूप निरूपणकर्ता जिनेंद्र अर्थ। जीवाजीवाद्युपधृतितयाऽऽधारभूतो ह्यनंतो
मध्ये तस्य त्रिभुवनमिदं लोकनाम्ना प्रसिद्धं । सर्वेषां स्यादवकशनदः शून्यमूर्तिर्महांश्चा
काशोऽयं तन्निजगुणगणं वक्ति तं पूजयामि ॥ ८८६ ॥ अर जीव अजीव आदि पदार्थनिकूधारणपणाकरि आधारभूत अनंत है अर ताके मध्य येह त्रिलोक लोकाकाश नामकरि प्रसिद्ध है अर सवकू अवकाश देनेवारो पर मूर्तिकरि रहित अर महान् आकाश है अर याका निज गुणने प्रभु कहै है ताने मैं पूज ह॥८॥
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