Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 298
________________ अHOTA HAMAKOCACKERAKASHNE सन्मंगलानि पुरतो विलसति यस्य पादारविंदयुगलं शिरसा वहामि ॥ ८८३ ॥ अर ताल कहिये वीजणो अर छत्र, चमर, ध्वजा, ठोणो, झारी, दर्पण, कलस येह मंगल वस्तु हैं ते समवसरणके गली गली प्रति अग्र भासमान जाके हैं ताका चरणारविदका युगल सिरकरि धारण करू हूँ॥३॥ ओं हीं अष्टमंगलद्रव्यसंपन्नाय जिनायाघम् । ओं ही मंगल द्रव्यसंपन्न जिनेद्रकू अघ। बुद्धीशामरनायिकार्यमहती ज्योतिष्कसव्यंतर नागस्त्रीभवनेशकिंपुरुषसज्ज्योतिष्ककल्पामराः। मा वा पशवश्च यस्य हि सभा श्रादित्यसंख्या वृष पीयूषं स्वमतानुरूपमखिलं खादंति तस्मै नमः ।। ८८४॥ अर मुनि अर आर्यिका कल्परासी देवांगना अर ज्योतिषी देवांगना अर व्यंतर देवांगना भवनवासी देवांगना ये सभा अर भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी कल्पवासी देव ये सभा पर मनुष्य पशु या प्रकार बारा संख्यावाली धर्मरूप अमृतने अपना अपना अभिप्रायानुकूल समस्त आस्वाद करें हैं तिस पुरुषके अथि नमस्कार होह ॥८८४॥ ओं ह्रीं द्वादशसभासंपत्तिसंपन्नाय जिनायाघम् । ओं ह्रीं द्वादशसभासंपन्न जिनेंद्रा अर्घ। ज्ञानाभिन्नः सततचिदपावृत्त एषोऽस्ति जीवोs नाद्यतः स्याच्छिवजगदितश्चक्रमायोगयोगात् । पर्यायानरसुरपशुश्वभ्रिभेदादिरर्थ याथातथ्यैर्निजसुखचिदानंद एव ह्यसेत्सीत् ॥ ८८५ ॥ २६ Jain Education For Private & Personal Use Only O brary.org

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