________________
प्रतिष्ठा
२६१
पाठ
भामंडलेऽवयवपृष्टिविभागरश्मिक्लुप्त जनस्य भवसप्तकदर्शनेन ।
श्रद्धानमाप्तगुरुधर्मपरंपराणां गाढं भवेत्तदितदेवपतिनमस्यः ॥ ८८०॥ वहुरि भामंडलमें पीठका अवयव विभागके किरणानिकरि रचित ऐसामै भव्यप्राणीन सात भवनिका देखिवातें प्राप्त गुरु धर्म इनकी परंपराको श्रद्धान गाढो होय है तात तिस प्राप्त भया जो देवपति है सो पेरे नमस्कार करणे योग्य है ॥८८०॥
ओं ही भामंडलमातिहायसंपन्नाय जिनायार्यम् ।
ओं ही भामंडल प्राप्तिहाय संपन्न जिनेंद्रके अथिं नमस्कारपूर्वक अधे । देवस्य मोहविजयं परिशंसितुं द्राक् देवाः स्वहस्ततलतः परिवादयंति।
वाद्यानि मंगलनिवासकराणि सद्यो मिथ्यात्वमोहजयिनः शुभगानि च स्युः ॥८८१॥ बहुरि देव जे हैं ते देवकै मोहको विजय भयो इसकूशीघ्र प्रकाश करनेकू अपने हाथके तलते वादित्र बजावते भये ॥ १॥
ओं ह्रीं दुंदुभिमातिहार्यसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं ह्रीं दुंदुभि प्रातिहार्य संपन्न जिनेंद्र अर्घ । छत्रत्रयं जिनपमूर्धनि भासमानं त्रैलोक्यराजपतितामभिदर्शयद वा।
सोमार्कवनिप्रतिमं सितपीतरक्तरत्नादिरंजितमिदं मम मंगलाय ।। ८८२ ॥ जिमराजका मस्तक ऊपरि प्रकाशमान उत्रत्रय तीन लोकका राज्यको पतिपणौ दिखावतो मानू चंद्र सूर्य अग्नि समान है प्रतिबिंब जाको चत पीत रक्त रत्बनिकरि रंजा हुआ है सो पेरे मंगलके वास्तै होहु ॥८॥
भों ह्रीं छात्रयपातिहार्यसंपन्नाय जिनायाम् ।
ओं ही छात्रयप्राप्तिहायसंयुक्त जिनेंद्रकूअर्घ। तालातपत्रचमरध्वजसुप्रतीक गारदर्पणघटाः प्रतिवीथिचारं ।
PARASHRA%%
Jain Educat
i onal
For Private & Personal use only
library.org