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स्तूपा हर्म्यततिर्ध्वजावलिसभे सद्गंधवेदिक्रमोऽ.
. शोको-रुहसिंहपादनभसिस्थायी जिनः पातु नः ॥ ८७४ ॥ समवसरणमें मानस्तंभ सरोबर पुष्पवाटी वन खाई चौतरफ प्राकार नाट्यशाला वन कल्पक्ष स्तूप हावली अर ध्वजापंक्ति गंधकुटोकी रचना अशोक वृक्ष सिंहासन तरीक्ष विराजमान जिनेंद्र हमारी रक्षा करो॥८७४॥
ओं ह्रीं नमोऽईते भगवते सकलसमवशरणविभूतिसंपन्नाय जिनायाघम् । ओं ही सकलविभूतिसंपन्नसमवसरणविराजमान जिनेद्रके प्रथिं अर्घ देना। वनस्पतित्वेऽपि गतप्रशोकोऽशोको वभूवातिमदप्रसूनः ।
अनेकसंदर्शकशोकहारी वृक्षो जिनेंद्राश्रयणप्रभावात् ॥ ८७५ ॥ 3) बहुरि वनस्पति पर्याय में भी गयो है शक जाको ऐसो अशोक वृक्ष है तो अति सुगंध पुष्पवान् है, अनेक देखनेवारेनिका शोक हरनवारा श्रीजिनेद्रका पात्र यतें होय है॥८५५॥
___ों ह्रीं अशोकमातिहार्यसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं ह्रीं अशोकवृक्षप्राप्तिहायसंयुक्त जिनेंद्र अघ। श्रेयस्तरुः फलति नोऽमरसौख्यमुच्चैहर्षोत्सुकत्वपरिलभनसन्मिषेण ।
देवैः कृता सुमनसां परिवृष्टिरेषा मोदं ददातु भवदुःखजुषां जनानां ॥ ८७६ ॥ पुण्यरूपी वृक्ष हम उच्च प्रकार देवपणाका सखने फल है। ई प्रकार हर्षका उत्सुक प्राप्ति मिषकरि या देवनिकरी पुष्पनिकी वर्षा है सो संसार दुःख संयुक्त प्राणीनिकूपानंद देवो ॥८६॥
ओं ही देवकृतपुष्पवृष्टिमातिहायसंपन्नाय जिनायाघम्।। ओं ह्रीं देवकृत पुष्पदृष्टि प्रातिहार्यसंपन्न जिनेंद्र अर्थ।
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