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प्रतिष्ठा
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अनादिभवपरावर्तनविनाशः । ४३ । द्रव्यक्षेत्र कालभावपरावर्तननिष्क्रांतिः । ४४ । चतुगतिपरावृत्तिः । ४५ । अनंतगुणसिद्धत्वप्राप्तिः । ४६ । ह्रीं अदेहसहजज्ञानोपयोगचारित्रसंस्कारः स्फुरतु स्वाहा । ४७ । प्रों ह्रीं अह इहार्हति विवे अदेहसहोत्यदर्शनोपयोगंश्वयंप्राप्तिसंस्कारः
स्फरतु स्वाहा । ४८ ।
एवमष्टचत्वारिंशत्संस्काराधारित्वं प्रतिपाद्य एतदर्थारोपणांतः करणेन श्राचार्येण सर्वप्रतिमासु पुष्पांजलिः क्षेप्यः । ततः सभाविसजनं वादित्राद्य पस्कर विसर्जनं च कृत्वा एकाकी आचार्यों वा इंद्रश्च प्रतिमां वेदिकायां नयेत् । तत्र चतुर्विंशतितपस्तिथानुद्दिश्य मंडले पृथगिष्टिः कर्तव्या ।
याका अर्थ |
ऐस सभाका मनुष्यों धर्मोपदेश देय वहां अपवरक कहिये पडदो लगाय जिनविंत्रके चौतरफ योग्य कितना ही मनुष्यांके सन्मुख दीक्षापाठ आचार्य पर अन्य जनाके समक्ष दीक्षापाठ वा दीक्षा नहीं करें। तहां 'नमः सिद्धभ्यः' येह मंत्र बोलि केशलोच विधि करें। इहां ऐसा जानना कि विव तो अचेतन है, स्वयं केशलोच कहा करें ? परंतु श्राचार्य ही करें अर जिनेंद्रकी एवज 'ग्रहं सर्वसावद्यविरतोऽस्मि'
- मैं हूँ' सो यावत् यावत् श्रायुष्य सर्वे सावद्य क्रिया हैं तिनका त्यागी हू' ऐसे प्रतिज्ञा करू र अर्हतभक्तिको पाठ तथा सिद्धभक्तिको 'पाठ करे और विधि करता आचायें है सो आप अपनी शुद्धि वास्तं प्रथम आचार्य अरु श्रुतभक्तिपाठ भी सिवाइ करै श्रर इहां कमंडलु काष्ठको मयूरपच्छिकाको ग्रहण साधुपणाको उपयोगी है तथापि तीर्थंकरकै नोहारकी क्रिया नहीं, तथा स्वशरीरसे जीवघात नहीं, तातै निमित्त उसी समय स्थापन करो पुनः उपयोगी नाहीं तातैं नहीं करावनी ऐसें आम्नायकू' जाननेवारे कहें हैं ॥
तहां प्रथम अंकस्थापन विधि कहिये है सो ऐसे हैं कि- एक मुख्य विवकू प्राचार्य अपने संमुख लेय कपूर चंदन केशर आदि सुगं"धित द्रव्यनिकू घसिकरि सुवर्ण शलाकाकार प्रतिमाका अंगोपांगनिपरि अंक स्थापन करै अर्थात लिखे । तहां प्रथम आचार्य भी अपना शरीर शुद्धि निमित्त मातृका मंत्र जो पूर्वै मंत्राधिकारमें कहा था सो अष्टोत्तर शत जपें अर अपना अंगमें भावमात्र संस्थापन कर पीछे प्रतिमामें लिखें।
ऐसा ललाटमें लिखे, प्रां मुखमें, इ दक्षिण नेत्रमें ई वाम नेत्रमें, उ ऊ कर्ण में, ऋ ॠ नासिकाद्वयमें, ऌ लु गंडस्थलनिमें, ए ऐ ओष्ठनिमें, ओ औ दंतनिमें, अं अः मस्तकमें, क ख दक्षिण भुजदंडमें, ग घ दक्षिण हातकी अंगुलिमें, ङ दक्षिण हातका अग्रभागमें, च छ वाम भुजदंडमें, ज भ वाम करकी अंगुलिमें, अ वाम हातका अग्रभागमें, ट ठ दक्षिण चरणका मूलमें, ड ढ दक्षिण पाद टिकून्यामें, ण दक्षिण पादका मूलमें, त थ द ध वामपादटिकून्यामें, न वामपादाग्रे, पफ दक्षिण पसवाडामें, ब भ वामपादका पसवाडामें, म उदरमें, य
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पाठ
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