Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 283
________________ CRORS % CRecitCUASHRA श्राख्यामात्रमुपाचरत्प्रतिकृतेर्मार्गप्रलंभावनात् । गाढोत्कृष्टसुसंहनस्य जिनपस्यास्येति संरूढितः क्लुप्तं तच्छुचि नाम तत्फलगणैः संपूजयाम्यादरात् ॥ ८४६ ॥ पर निस कायोत्सर्गमात्र करना भर माप स्वभावने ध्यावना जिनकै नाममात्र निश्चयनयत होय है अर अंगीकार किया विचमें भी नामPा मात्र हो है क्योंकि मार्ग साधूको दिखावनाके अर्थि है अर गाढा उत्तम संहननधारी जिनकै रूढि कल्पनाते ताका फल कपनिको निर्जराका | होवात अंत्य अंतरंग तपनै आदरतें पूज हूँ॥८४६॥ ओं ह्रीं पट प्रकारांतरंगतपोनिष्ठाय जिनाया । यस्याश्रयेण सकलाघतृणौघदाहशक्तित्वमाप चरितं चरितं जनेन । तच्चारुपंचतयरूपमपास्य चारमंत्यं यथाख्यमगमत्परिपूर्णतांगं ॥ ८४७॥ भर जाका पाश्रयकरि सकल पापकर्मरूप तृणका समूहमें दाहशक्तिपणानं प्राप्त होइ है, सो जनने चारित्र पाचरण कियो सो पंच प्रकार रूपने छोडि अंत्य यथाख्यात चारित्र श्रीजिनक परिपूर्ण होतो भयो॥४७॥ ओं हीं यथाख्यातचारित्रधारकाय जिनायाघ । शुक्लद्वयेन परिहृत्य तपोवितानमात्मानमाशु परिक्लप्य कृतावकाशं । ज्ञानावलोकनसमत्ययनाशमापन्मोहस्य पूर्वदलनेन समस्तभावात् ॥ ८४८॥ अर शुक्लध्यानका युगलकरि अज्ञान अंधकारने परिहारकरि आत्माने कृतकृत्यकरि ज्ञानावरण दर्शनावरण अर अंतराय इनका नाश प्राप्त हुचो अर मोहको दमन तो समस्तपणाकरि पूर्वं हवो ही ॥४८॥ ओं ह्रीं मोहनीयज्ञानदर्शनावरणांतरायनिर्णाशकाय जिनाया। ABOSSABREASONICADERS २७७ Jain Educa For Private & Personal Use Only brary.org

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