Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 286
________________ प्रतिष्ठा -२८० सुगंधकरि सघन मकरन्दवारे पर मनोहर पुष्पनिकरि तथा सुवर्णके अर कल्पटन के पारिजातके पुष्पनिकरि मोक्षरूप मानवती स्त्रीका लाभके निमित्त पूर्वोक्त माला आदिकरि चरणपंक्तिने मैं पूजू हूं ॥ ८५४ ॥ श्रीं ह्रीं अर्हते सवंशरीरावस्थिताय पृथु पृथु पुष्पाणि गृहाण गृहाण स्वाहा । नूनं निरावृतिचमत्कृतिकारि तेजो नो शक्यमीक्षितवतामपि भावुकानां । इत्येवमर्पितनयानयनेन शंभोर मुखाग्रमहवस्त्रमुपाकरोमि ॥ ८५५ ॥ 'अरु नवीन अर निरावरण ताका चमत्कारनेवारा प्रभुका तेज है सो देखनेवारे भव्यनिकू शक्य नहीं है ऐसे या प्रकार अर्पित नयका अवलंबनकर श्रीभगवानका मुखके अग्रभागमें वस्त्रसे मैं परदा करू हूं ॥ ८५५ ॥ ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय समदनफलं सप्तधान्ययुतं मुखवस्त्रं ददामि स्वाहा । इति मुखाग्रे वस्त्रयवनिकां दत्त्वा यवमालावलयं जिनपादाग्रतः स्थापयेत् । एसें मुखख अग्र रोपणा । प्रश्न- इहां सर्वज्ञपणा मानि पूजन विधान करिये हैं, फिर भगवानका अग्रमुख वस्त्रका देना कैसा है ? उत्तर - यह प्रतिष्ठापाठ सर्वक्रियाकांड है, अर मुख नाम अग्रभागका है तातें विबके आड़ा एक परदा भगवानके घाड देना ऐसा अभिप्राय है। इस हीकू' मूलपाठ में 'यवनिकां दत्त्रां' ऐसा कहा है । अर्थ-वस्त्रका परदा देना । षष्ठोपवासविधये नवसर्पिषाक्तनैवेद्यभाजनमिदं परिवर्त्य सप्त । वारं तदीयपरित्यभिधाप्रसिद्ध संस्थापयेज्जिनवराग्रिमभूतधात्र्यां ॥ ८५६ ॥ बहुरि श्रीभगवानकू बेला तेला आदि अनशनतपका विधान हो चुका इस बात के अर्थि नवोन घृतक रे मिश्रित नैवेद्यका पात्र सात वार उतार आगामी केवल ज्ञानोत्तर भोजनका अभाव है इसकी प्रसिद्धि के अर्थ जिनेंद्रके अग्रभागी पृथ्याविषै स्थापित करना ॥ ८५६ ॥ हीं अहंते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु नैवेद्य ं गृहाण गृहाण स्वाहा । Jain Educationational For Private & Personal Use Only पाठ २८० elibrary.org

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