Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 285
________________ थातष्ठा २७६ MARA%A4% A रेचक स्वरका उदयमें विशुद्ध मन पर संकल्प विकल्पको परिहारकरि प्राचार्य है सो मुख्य जिनर्विवको नाभिस्थानमें ह ऐसा वोज लिखै तदिनों ही श्री अहँ असि आ उ सा अप्रतिहतशक्तिभवतु हो स्वाहा' जाप करै । ये हो तिलकदान है, प्रतिष्ठाका मुख्य काय है ॥८४६-५१॥ अधिवासनाप्रकारः-तत्पतिमां भद्रासनोपरि मातृकायंत्रे स्थापयित्वाऽष्टोत्तरशतधार तोयजनधारानिपातनेनाभिमंत्र्य अग्रेविपिं कुर्यात् । अब अधिवासना प्रकार कर-सो उस प्रतिमाने भद्रासन ऊपरि मातृका यंत्रने लिखि उस यंत्र ऊपरि प्रतिमाकूविराजमानकरि तीर्थ जलधाराने मंत्रपूर्वक निपातन करें। काश्मीरचंदनरसेन विलुब्धशुंभत्सौरभ्यमत्तमधुपावलिझंकृतेन। पीठस्थली जिनपतेरधिपादपद्मं संचर्चयामि मुनिभिः परितः पवित्रां ॥ ८५२॥ ओं ही अहते सर्वशरोरावस्थिताय पृथु पृथु चंदन गृहाण गृहाण स्वाहा। पवित्र ऐसीने चरणारविंद समीप तस लाभने प्राप्त भये सुंदर सोगंध्यकरि मदोन्मत्त ऐसे भ्रपर पंक्तिका झंकारसंयुक्त ऐसा केशरचंदन का रसकरि लिंपन करूंहूँ॥८५२॥ प्रों हो सवंशरोरावस्थित अहतके अर्थि बहु प्रकार चंदन ग्रहण करू हूँ। मुक्ताफलच्छविपराजितकामकांतिप्रोदभूतमोहतिमिरेकफलौघहेतु। शाल्यक्षतार्थपरिपूर्णपवित्रपात्रमुत्तारयामि भवतो जिनपस्य पार्वे ।। ८५३॥ बहरि हे भगवन् ! तिहारे अग्रभाग मोलीनिकी छविकरि जोती गई है निश्चल कांति जाको अर प्रगट दुरि कियो है मोहरूपी तिपिर स्वरूप एक फलसमूहको हेतु जान ऐसो तंदुल अक्षत अर्थकरि भरयो अर पवित्र ऐसा अक्षतपात्रने में उतारूह॥५३॥ ___ओं ही अहते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु अक्षतान् गृहाण गृहाण स्वाहा । सौरभ्यसांद्रमकरंदमनोऽभिरामपुष्पैः सुवर्णहरिचंदनपारिजातैः । श्रीमोक्षमानिवनितापरिलंभनाय माल्यादिभिश्चरणधोरणिमुत्सृजामि ॥८५४ ।। R RAA%EOCOCCASIAN-LAWS . 1%ER २७६ Jain Educat For Private & Personal use only Marattellbrary.org

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