Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 284
________________ % बतिष्ठा पाठ E २७८ PARCHROGRAAAMRURUCTUREGAC अथात्र विधितिलकद्रव्यसंचयनं । अब इहां शेषविधि कहिये है-तहां तिलक द्रव्यका संचय है। पिंगाप्रियंगुफलदध्यमृतप्रदूर्वा सिद्धार्थका हिममहागुरुरत्नसिक्तं । तीर्थाबुकानकघटोधृतदुग्धधारासंपन्नमाशु विदधीत निजाभिषिक्त्यै ॥ ८४६ ॥ स्नात्वा कुसुभबसना धृतहेमभूषा सन्मौक्तिकोधृतचतुष्कविराजमाना। मंलं ह्यनादिनिधनं परिजप्य शुद्धा यष्टीसु चंदनरसं परिषेचयेत्तु ॥ ८५.॥ भर्नचलाक्तवसनायुगकोणभासि दीपावलीद्युतिविशालिशिलोपरिष्टात् । संघृष्य चंदनमनर्थसमूहनष्टये भाले विधातु सवितुः कृतमंडितस्य ।। ८५१ ॥ ओं ह्रीं णमो अरहताणं इत्यादि पठित्वा याजकपनी वादिननादपुरस्सरं जयजयादाकुलं सुपंगलगानरम्यपकाशं तितकं प्राचार्यमूर्टिन | कुर्यात् । तत आचार्योऽपि चारित्रभक्ति पठित्वा ओं हां ही हूँ हौं हः असि आ उसा एहि संबोषट् । ओं हां ह्रीं हूँ हो असि आ उ सा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ओं हां ह्रीं हों हः असि पा उ सा अत्र मप सन्निहितो भव भव वषट् । इति मंत्रराहूय एकति सुलग्ने रेचकस्वरोदये प्राचार्यो विशुद्धमना परिहतसकलसंकल्या मुखजिनविंचनामो 'ओं हों श्री ग्रह प्रसि पाउ सा अप्रतिहतशक्तिभवतु ही स्वाहा इत्युदीय हूँ (2) इति वीजं स्थापयेत् । इदमेव तिलकदानं प्रकृतो वोध्यं । अत्राष्टकं देयं । | यजमानको पत्नी तिलकद्रव्य घप्त सो ऐसे करें--सुगंबका भारकरि मिल्यो ऐसोभ्रमरनिके समूह ताकरि शब्दायपान विडा पहा अगुरु चंदन ताकरि तथा रत्ननिका चूर्ण तीर्थका जल सुवर्णका घरमें धारण किया जन शोत्र हो जिनका अनि के अवि कर। तदि आचार्य भी | चारित्रभक्तिपाठ पढिकरि ओं ही इत्यादि आह्वानन स्थापन संनिधिकरण मंत्रनिकरि उस देशको आडात कर अर एकांत सुंदर लग्नमें R-ANVTECHCHEHERBA २७८ JainEducation For Private & Personal Use Only library.org

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